________________
[१९१ रूप में उत्पन्न होता है। मनुष्य जन्म, आर्य देश, उत्तमकुल, समस्त इन्द्रियों की पटुता और दीर्घ आयुष्य तो कर्मों के और क्षीण हो जाने से मिल जाते हैं। सद्धर्म सद्गुरु और उन्हें सुनने की इच्छा भी प्रचुर पुण्योदय के लाभ से प्राप्त हो जाते हैं; किन्तु तत्त्व श्रद्धा रूप सम्यक्त्व प्राप्त होना दुष्कर है। राजा या चक्रवर्ती होना भी उतना दुष्कर नहीं है जितना दुष्कर है जिन प्ररूपित धर्म द्वारा बोधिलाभ प्राप्त करना। समस्त जीवों ने इसी प्रकार पूर्व में भी अनन्त बार इस भाव को ग्रहण किया है; किन्तु उन्हें संसार-भ्रमण करते देख कर कहा जा सकता है कि बोधि-रत्न इन्होंने इसके पूर्व प्राप्त नहीं किया। इस संसार में परिभ्रमण करते समय समस्त प्राणियों का पुद्गल परावर्तन अनन्त बार हुआ है । जब अन्ततः अर्द्ध-पुद्गल परावर्तन अवशेष रह जाता है और जब सब कर्मों की स्थिति एक कोटाकोटि सागरोपम से कम रह जाती है तब यथावृत्तिकरण में अग्रसर होकर जीव ग्रन्थी-भेद कर उत्तम बोधिरत्न को प्राप्त करता है । कुछ जीवों का ऐसा भी होता है कि वे यथ वृत्तिकरण के पश्चात् ग्रन्थिभेद की सीमा पर आकर भी भटक जाते हैं । वे उससे आगे नहीं जा पाते और संसार-चक्र में आवर्तित होते रहते हैं।
(श्लोक २०१-२०८) कुशास्त्र श्रवण, मिथ्यात्वियों का संग, मन्द वासना और प्रमाद बोधिरत्न की प्राप्ति में बाधक है । यद्यपि चारित्र-रत्न पाना दुर्लभ है फिर भी बोधिरत्न की प्राप्ति के पश्चात् चारित्र-रत्न पाना सहज हो जाता है। कारण, चारित्र की सफलता बोधि के अस्तित्व पर ही निर्भर है। अन्यथा प्राप्त चारित्र भी निष्फल हो जाता है। अभव्य जीव भी चारित्र ग्रहण कर नवम् वेयक पर्यन्त उत्पन्न हो सकता है; किन्तु बोधिरत्न के अभाव में मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। बोधिरत्न के अभाव में चक्रवर्ती भी दरिद्र है । दरिद्र भी यदि बोधिरत्न को प्राप्त कर ले तो वह चक्रवर्ती से भी श्रेष्ठ है । जिसे बोधिरत्न की प्राप्ति हो गई है संसार के प्रति उसका कोई अनुराग नहीं रहता। ममत्वरहित वह बिना बाधा के मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।'
(श्लोक २०९-२१३) भगवान् का यह उपदेश सुनकर अधिकतर श्रोताओं ने मुनि धर्म ग्रहण कर लिया । स्वयम्भू वासुदेव ने सम्यक् दर्शन और बलदेव