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शनि की तरह रुद्र और मेरक एक स्थान पर आकर मिले । दोनों सेनाओं में युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों ओर से निक्षिप्त अस्त्रों से आकाश प्रलयकालीन अग्नि की तरह प्रज्वलित व भयंकर हो उठा । शत्रु सेना को ध्वंस करने के लिए स्वयम्भू ने मन्त्र की तरह पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया । पाञ्चजन्य के शब्द से मेरक की सेना कांप उठी । सिंह का गर्जन सुनकर क्या हस्ती टिका रह सकता है ? तब मेरक अपनी सेना को मुर्गे की तरह तटस्थ रहने को कहकर रथ पर चढ़ा और स्वयम्भू की ओर दौड़ा । सैन्य व्यर्थ ही युद्ध क्यों करे, बताते हुए दोनों ने धनुष पर टङ्कार दी । मानो विजयश्री के विवाह मण्डप की रचना की हो इस प्रकार जल - वर्षा की तरह दोनों शर वर्षा कर सूर्य को आच्छादित कर डाला । अग्नि के प्रतिरोध में अग्नि की तरह, विष के प्रतिरोध में विष की तरह दोनों की शर- वर्षा दोनों का प्रतिरोध करने लगी । वे दोनों दो सूर्यो की तरह भयङ्कर प्रतीत हो रहे थे जिनसे शर रूपी सहस्र किरणें निकल रही थीं । धनुष और तूणीर के मध्य द्रुतगति से जाने के कारण उनके हाथ दिखलाई ही नहीं पड़ रहे थे, मात्र हाथ की मुद्रिका की दीप्ति से उनका अस्तित्व अनुभूत होता था । उनके दोनों हाथ एक बार तूणीर और एक बार धनुष की प्रत्यञ्चा पर पड़ने के कारण लगता था मानो उनके चार हाथ हों । मेरक ने देखा शत्रु को केवल शरवर्षा से पराजित नहीं किया जा सकता तब प्रलयकाल में घूर्णिवायु से जिस प्रकार पर्वत शृङ्गादि उत्पतित होते हैं उसी प्रकार मूसल मुद्गर आदि निक्षेप करने लगे । स्वयम्भू ने उन सभी अस्त्रों को प्रतिअस्त्रों से उसी प्रकार नष्ट कर डाला जैसे दृष्टिविष सर्पदृष्टि की ज्वाला से सब कुछ विनष्ट कर डालता है । ( श्लोक १३३ - १४८ ) अन्ततः शत्रु को विनष्ट करने के लिए मेरक ने चक्र का स्मरण किया । बाज पक्षी जैसे व्याध के हाथ आ पड़ता है उसी प्रकार चक्र उसके हाथों में आ गया । तब मेरक स्वयम्भू को बोला, 'तुझे युद्ध-विद्या की शिक्षा देने के लिए ही मैं अब तक युद्ध-क्रीड़ा कर रहा था। अब मैं तेरा शिरच्छेद करूँगा । अतः बचना चाहता है तो भागकर प्राणों की रक्षा कर । दस्यु और काक को भागने में क्या लज्जा है ? '
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( श्लोक १४९ - १५१ )
स्वयम्भू ने प्रत्युत्तर दिया- 'यदि अब तक तुम युद्धक्रीड़ा कर