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वस्त्रधारी ताल और गरुड़ध्वज वे खेलते हुए ही चलते तो पृथ्वी डगमगाने लगती । समस्त प्रकार की शस्त्र-विद्या और सर्वप्रकार के ज्ञान अर्जन कर यौवन के समागम पर वे विशेष बल और ज्ञान के अधिकारी हो गए । ( श्लोक १०२-१०५ )
एक दिन जबकि वे नगर की सीमा पर खेल रहे थे तो उन्होंने वहां एक छावनी निर्मित होते देखी । वहां हस्ती अश्व धन रत्नादि रक्षकों के पहरे में रक्षित थे । बलदेव ने पूछा 'इन सबों को यहां किसने भेजा है ? शत्रु ने या मित्र ने ?' प्रत्युत्तर में मन्त्रीपुत्र ने कहा - 'अपने राज्य की रक्षा के लिए राजा शशिसौम्य यह भेंट अर्द्धचक्री मेरक को भेज रहे हैं ।' यह सुनकर क्रुद्ध वासुदेव बोले'यह भेंट हमारे सामने से उनके पास क्यों जाएगी ? कौन है वह अभागा मेरक जो हमारे रहते इस प्रकार राजाओं से कर ग्रहण करता है ? वह कितना शक्तिशाली है देखना होगा । यह सब छीन लो । यदि सामर्थ्य होगा तो वह आकर ले जाएगा ।' ऐसा कहकर उन्होंने अपने अनुचरों को हाथ उठाकर निर्देश दिया । यह आज्ञा पाकर उनके अनुचरों ने लाठी-सोटा लेकर फल लगे वृक्ष की तरह शशिसौम्य के रक्षकों पर आक्रमण कर दिया। अकस्मात् शत्रुओं द्वारा आक्रान्त होकर रात्रि में सोयी अवस्था में आक्रान्त की भांति उन्होंने भागकर अपनी रक्षा की । वासुदेव ने उन सभी हस्ती - अश्वरत्नादि को ग्रहण कर लिया । शत्रु सम्पत्ति को जबर्दस्ती दखल करने से योद्धा का शौर्य ही प्रकाशित होता है । ( श्लोक १०६-११४)
शशिसौम्य के रक्षकगण हांफते हुए जिस प्रकार उनकी भेंट लूट ली गई थीं वह सब अर्द्धचक्री मेरक के पास जाकर निवेदन किया । यह सुनकर मेरक निरंकुश यम की तरह क्रुद्ध होकर भृकुटि कुञ्चित करते हुए राज्य सभासदों से बोला- 'पेट भर खाना मिलने से उद्दीप्त गर्दभ जिस प्रकार हस्ती को पदाघात करता है, कृषक जिस प्रकार अपनी पत्नी पर प्रहार करता है, मेंढ़क जैसे सर्प को थप्पड़ लगाता है, रुद्र के पुत्र ने भी उसी प्रकार अपनी मृत्यु के लिए ऐसा अविवेकी कार्य किया है । मृत्यु के पूर्व चींटियों के जिस प्रकार पंख निकल आते हैं उसी प्रकार हत्बुद्धिता मनुष्य के विनाश का कारण होती है । उसने मेरी भेंट चोर की तरह ग्रहण कर ली है ।