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दीक्षा ग्रहण कर ली। संयम पालन और अभिग्रह युक्त तपस्या कर आयुष्य समाप्त हो जाने पर अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ७२-७३) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अलंकारतुल्य श्रावस्ती नामक नगरी में धनमित्र नामक एक राजा राज्य करते थे। राजा धनमित्र के साथ बन्धुत्व होने के कारण वलि नामक एक अन्य राजा उनका अतिथ्य स्वीकार कर श्रावस्ती में निवास करने लगे। एक दिन अक्षीण बुद्धि राजा धन मित्र वलि राजा के साथ पाशा फेंककर अक्ष क्रीड़ा कर रहे थे। खेल में इतने मस्त हो गए कि अक्षक्रीड़ा में भी अपनी गोटियों को सेना समझकर युद्ध क्षेत्र की तरह मारने और अवरोध करने में व्यस्त हो गए। दोनों ने एक-दूसरे पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से अपने-अपने राज्य को भी दांव पर लगा दिया । द्यूतक्रीड़ा में मस्त मानव को हिताहित का ज्ञान नहीं रहता । अन्ततः हार जाने पर राजा धनमित्र राज्य परित्याग कर एकाकी विक्षिप्त की भांति विचरण करने लगे। अर्थहीन फटे कपड़े पहने मलिन धनमित्र के साथ लोग भूतग्रस्त मनुष्य की तरह व्यवहार करते थे।
(श्लोक ७४-८०) इस प्रकार घूमते हुए एक दिन उन्हें मुनि सुदर्शन से साक्षात्कार हुआ और कई दिनों तक अनाहार रहने के पश्चात् रोगी जैसे पहली बार रस पीता है उसी प्रकार उनके देशना रूप अमृत का उन्होंने पान किया। फलतः उनसे दीक्षा लेकर दीर्घकाल तक मुनि धर्म का तो पालन किया; किन्तु वलि का असद् व्यवहार वे भूल न सके। अन्ततः वे निदान कर बैठे कि मेरी तपश्चर्या का कुछ पुण्य है तो मैं आगामी जन्म में वलि को मारकर इसका प्रतिशोध लू। यह संकल्प कर उन्होंने अनशनपूर्वक मृत्यु को वरण किया और अच्युत देवलोक में पूर्ण आयुष्य लेकर जन्म ग्रहण किया।
(श्लोक ८१-८४) राजा वलि ने भी कालान्तर में यति धर्म ग्रहण किया और मृत्यु के पश्चात् देवलोक में शक्तिशाली देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर भरत क्षेत्र के नन्दनपुर के राजा समरकेशरी और रानी सु.दरी के पुत्र रूप में जन्म लिया । उनकी देह रसाञ्जन धातु की तरह चमकीली और साठ धनुष उन्नत थी। उम्र थी साठ लाख