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के जल से या चन्द्र-कौमुदी या मेघों के अविरत वर्षण से यहाँ तक कि गोशीर्ष चन्दन व सघन कदली वृक्ष से भी शान्त नहीं होता वह तुम्हारे दर्शन मात्र से ही शान्त हो जाता है । वह व्याधि जो नानाविध औषधियों, चूर्ण प्रलेपों से, शल्य प्रयोगों से या मन्त्र प्रयोगों से भी दूर नहीं होती वह तुम्हारे दर्शन मात्र से ही दूर हो जाती है । मैंने बहुत कुछ कहा, किन्तु जो कुछ मैं बोलना चाहता हूं वह संक्षेप में यह है कि हे त्रिलोकनाथ, जो कुछ अन्य उपायों से सम्पन्न नहीं होता वह तुम्हारे दर्शन मात्र से ही सम्पन्न हो जाता है । मैं आपसे यही याचना करता हूं मुझे आपके दर्शनों का सौभाग्य बार-बार मिले ।' (श्लोक ४५-५२)
इस भाँति स्तुति कर शक्र प्रभु को लेकर उनकी माता के निकट पहुंचे और प्रभु को माता के पार्श्व में सुलाकर प्रणाम किया । तीर्थंकर माता की अवस्वापिनी निद्रा दूर कर तीर्थंकर बिम्ब को वहाँ से हटाकर शक्र स्व-निवास को लौट गए और अन्यान्य इन्द्र मेरु पर्वत से ही स्व-स्थान को चले गए । ( श्लोक ४३-५४ ) सूर्योदय जैसे कमलदल को विकसित करता है राजा वसुपूज्य उसी प्रकार प्रजापु ंज के हृदय को विकसित कर पुत्र का जन्मोत्सव किया । तदुपरान्त एक शुभ दिन उन्होंने व रानी जया ने त्रिलोकनाथ का नाम वासुपूज्य रखा । शक्र द्वारा अंगुष्ठ में भरा अमृत-पान कर प्रभु वर्द्धित होने लगे । अर्हत् स्तनपान नहीं करते इसलिए धात्रियों का केवल अन्य कार्य ही अवशेष था । वासव द्वारा नियुक्त पाँच धात्रियों द्वारा प्रभु लालित होने लगे जो कि उनका छाया की तरह अनुसरण करती थीं । भगवान् ने देव, असुर और राजन्यगण जो कि उनके सखा बन गए थे उनके साथ अपना शैशव व्यतीत किया । वे कभी रत्न खचित सुवर्ण कन्दुक से खेलते कभी हीरों जड़ी यष्टि से, कभी भ्रमर की तरह घूमने वाले लट्टू से, कभी बाजी लगाकर वृक्ष पर चढ़ते, कभी दौड़ते, कभी लुका-छिपी खेलते, कभी छलांग लगाते, कभी ऊपर उछलते । कभी तैरते, कभी वाक् युद्ध करते तो कभी मुष्ठि युद्ध, तो कभी मल्ल युद्ध । ( श्लोक ५५-६२ ) सत्तर धनुष दीर्घ और सर्व सुलक्षण युक्त प्रभु ने वामाओं को पराजितकारी यौवन प्राप्त किया । वसुपूज्य स्वामी ने जब सांसारिक भोग में अनिच्छा प्रकट की तो राजा वसुपूज्य और रानी