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में पहले दूत ही जाता है। ऐसा सोचकर उसने चुपचाप दो दूत पोतनपुर भेजे । वायु की भांति तीव्रगति से चलकर दूत ज्वलनजटी के घर में प्रवेश कर बोला-'मैं भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध के अधीश्वर अर्द्धपृथ्वी के इन्द्र अश्वग्रीव का आदेश आपको सुनाता हूं - आपके घर में स्वयंप्रभा नामक एक स्त्री-रत्न है उसे ले जाकर महाराज को समर्पित कीजिए। भरतक्षेत्र का रत्न और किसी के लिए प्राप्य नहीं है । अश्वग्रीव आप और आपके वंश के अधीश्वर हैं । अतः आप की कन्या उन्हें दान करें। नेत्रों के बिना मस्तक की शोभा नहीं हो सकती। अश्वग्रीव जो कि क्रुद्ध हो गए हैं उन्हें और क्रुद्ध कर नली द्वारा अनवरत फूक मारकर गलते स्वर्ण को विनष्ट न करें।'
(श्लोक ४९५-५०३) ज्वलनजटी ने उत्तर दिया-'कन्या का विवाह मैंने त्रिपृष्ठ कुमार के साथ कर दिया है और वह उसी समय विधि अनुयायी उनके द्वारा स्वीकृत हो चुकी है । दूसरे की प्रदत्त वस्तु पर विशेषकर उच्च कूल जात कन्या पर दाता का कोई अधिकार नहीं रहता। वे इस पर सोचें ।'
(श्लोक ५०४-५०५) ज्वलनजटी द्वारा यह सुनकर दूत मन्द अभिप्राय लिए त्रिपृष्ठ कुमार के पास गया। कारण, वह उनके प्रभु का प्रतीक बनकर आया था । वह त्रिपृष्ठकुमार से बोला :
___'भरतार्द्ध के अधिपति मर्त्य के इन्द्र अश्वग्रीव ने आपको यह आदेश दिया है कि जिस प्रकार पथिक अज्ञानतावश राजोद्यान से फल आहरण करता है उसी प्रकार यह कन्या जो कि उनके उपयुक्त थी आपने उसे अज्ञानतावश ग्रहण कर ली है। वे आप और आपके आत्मीयों के अधिपति हैं। दीर्घ दिनों से आप उनके द्वारा रक्षित हैं । अतः आप इस कन्या का परित्याग करें । भृत्य के लिए तो प्रभु का आदेश ही बलवान् है ।
(श्लोक ५०६-५०९) यह सुनकर त्रिपृष्ठ का ललाट भ्र -कुञ्चन के कारण भयंकर हो उठा-कपोल और चक्षु रक्तवर्णा हो गए। वे बोले - 'तुम्हारे प्रभु तो इस प्रकार आदेश देते हैं जैसे वे पृथ्वी के अधीश्वर हैं । धिक्कार है उनकी कुल-मर्यादा को। मुझे लगता है इस प्रकार उन्होंने अपने राज्य की उच्च कुल जात कुमारियों को विनष्ट किया है। मार्जार के सम्मुख क्या दूध बचता है; किन्तु मैं पूछता हूं मुझ पर उनका