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गिरा। जैसे ही वह उस पर पड़ा वैसे ही वासुदेव ने उसके दोनों जबड़ों को दोनों हाथों से इस प्रकार पकड़ लिया जैसे संडासी से सांप के जबड़े को पकड़ा जाता है। तदुपरान्त एक जबड़ा एक ओर और दूसरा जबड़ा दूसरी ओर खींचकर फटे कपड़े की तरह ‘फड़फड़' शब्द करता हुआ चीर डाला । जन-साधारण ने चारण और भाटों की तरह 'जय-जय' ध्वनि से दिङ मण्डल को गुञ्जित कर डाला। देव विद्याधर असुरों ने जो कि उत्सुकतावश आकाश में एकत्र हुए थे आकाश से उसी प्रकार पुष्प-वर्षा की जिस प्रकार मलयपर्वत से वायु प्रवाहित होती है। दो भाग की हई सिंह की देह जिसे जमीन पर फेंक दिया गया था क्रोध से तब भी काँप रही थी मानो उसमें तब भी चेतना थी।
(श्लोक ३९४-३९७) दो भागों में विभाजित हो जाने पर भी सिंह मानो इस अपमानकर स्थिति से कांपते हुए सोच रहा था-शस्त्र और कवचधारी और सैन्य परिवृत्त राजाओं द्वारा वज्रपात-सा उत्पतित मैं निहत नहीं हुआ-हाय, इस कोमल-हस्त निरस्त्र बालक द्वारा मैं निहित हुआ इसी का मुझे खेद है, मृत्यु का नहीं । सर्प की तरह लोट-पोट होते सिंह के इस मनोभाव को जानकर वासूदेव के सारथी उसे सान्त्वना भरी वाणी में बोले-'मदोन्मत्त शत-शत हस्तियों को विदीर्णकारी और सहस्र-सहस्र सैन्य-वाहिनियों को परास्त करने वाले हे वनराज, तुम शोक मत करो। बालक होने पर भी ये महावीर भरतक्षेत्र के त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव हैं। तुम पशुओं में सिंह हो, ये मनुष्यों में सिंह हैं। इनके द्वारा मृत्यु प्राप्त होने पर लज्जा कैसी ? बल्कि उनके साथ युद्ध किया यह तुम्हारे लिए गौरव की बात है।'
(श्लोक ४००-४०६) अमृत-वर्षा-से सारथी के वाक्यों से सान्त्वना प्राप्त कर सिंह मृत्यु को प्राप्त हुआ और अपने कर्मों के कारण नरक में जाकर उत्पन्न हुआ।
(श्लोक ४०७) ___अश्वग्रीव का आदेश अवगत कर कुमार ने विद्याधरों को सिंह-चर्म सौंपते हुए कहा-'यह सिंह-चर्म भयभीत घोटक कण्ठ को सिंह की मृत्यु की सूचना रूप देना और उस भोजन-विलासी से कहना-चिन्ता का कोई कारण नहीं है, अब वह जी भरकर शालिवान खा सकेगा।
. (श्लोक ४०८ ४१०)