________________
[११९
किया गया तो अश्वग्रीव भी आहत होंगे । क्योंकि राजा लोग दूत के अभिमतानुसार ही चलते हैं । प्रभु यदि क्षुब्ध हो गए तो कृतान्त की तरह राज्य रक्षा तो दूर बचना ही मुश्किल है ।'
( श्लोक २९४ - २९९ ) त्रिपृष्ठ बोला - ' जन्म से कोई किसी का दास या प्रभु नहीं होता । यह तो बल पर निर्भर करता है । अभी तो मैं इसे कुछ भी नहीं कहूंगा । स्वयं का गुणगान और दूसरों के दोष का वर्णन आर्यों के लिए अवमानना है । जिसने मेरे पिता के साथ अवमानकर व्यवहार किया है उसे मैं भू-पतित कर यथा समय अश्वग्रीव को छिन्नग्रीव करूँगा । जब पिताजी उसे विदा करें तब मुझे बताना, मैं देख लूँगा उसे । जो कुछ करणीय है वह तभी करूँगा ।' राजा प्रजापति के लिए यह अनिष्टकर होगा, जानकर भी वह भृत्य उससे सम्मत हुआ कारण सेवकों के लिए राजकुमार का आदेश भी राजा की ही तरह पालनीय है । ( श्लोक ३०० - ३०४)
चण्ड वेग ने अश्वग्रीव का आदेश प्रजापति को इस प्रकार बताया मानो वे उनके सेवक हों । प्रजापति ने उनके समस्त आदेश स्वीकार कर लिए और दूत को उपयुक्त उपहार देकर विदा किया । वह भी सन्तुष्ट होकर अपने अनुचरों सहित स्वदेश लौट जाने को पोतनपुर से रवाना हुआ । यह संवाद मिलते ही त्रिपृष्ठ अचल सहित उसके सम्मुख जाकर पवन सह दावानल जैसे पथिकों के पथ को अवरुद्ध करता है उसी प्रकार उसकी राह रोक ली । त्रिपृष्ठ उससे कहने लगा- 'अविवेकी, शठ, पशु, सामान्य दूत होकर तुम राजा-सा व्यवहार करते हो ? जिसको सामान्य सी भी बुद्धि होती है, यहाँ तक कि पशु भी जो बचने की इच्छा रखता है वह भी तुमने जिस प्रकार संगीतानुष्ठान को भंग किया, नहीं करता । स्वयं राजा भी यदि किसी के घर में प्रवेश करते हैं तो सूचना देकर ही प्रवेश करते हैं । आर्यों की यह नीति है । तुम बिना कोई सूचना दिए जैसे भूमि फाड़कर निकले हो इस प्रकार सहसा दरबार में उपस्थित हो गए। मेरे पिताजी सरल है इसलिए उन्होंने तुम्हारे प्रभु की तरह तुम्हारा स्वागत किया । जिस शक्ति में अन्धे होकर तुमने असम्मान दिखाया, अब उसी शक्ति से साक्षात्कार करो । दुर्व्यवहार का फल भोगो - ऐसे कहकर जैसे ही त्रिपृष्ठ ने हाथ उठाया वैसे ही