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के साथ वे भी मिल गयीं। प्रत्येक स्थानों में तोरण बने । प्रतिपद पर संगीत घर, नगर एवं प्रासाद में सर्वत्र आयोजित हुए।
(श्लोक २१६.२३३) बालक की पीठ पर तीन हाड़ होने के कारण राजा ने उसका नाम रखा त्रिपृष्ठ । धात्रियों द्वारा लालित और अचल के साथ खेलकर त्रिपृष्ठ क्रमशः बड़े होने लगे। पांवों में नपुर पहनकर बलभद्र अचल के साथ खेलते हुए वे उनके आगे चलते । लगता महावत सहित जैसे हस्ती चल रहा हो। प्रखर बुद्धि सम्पन्न होने के कारण उन्होंने समस्त विद्याओं को, दर्पण जैसे सहज ही प्रतिबिम्ब धारण करता है, उसी प्रकार धारण कर लिया। उनके शिक्षक उनके साक्षी रहते । कालक्रम से सामरिक शिक्षा प्राप्त करने लायक उनकी उम्र हो गई । दीर्घबाहु विस्तृत वक्ष के कारण अनुज होने पर भी वे बलभद्र के समवयस्क ही लगते थे। दोनों भाई जब निरवच्छिन्न रूप से एक साथ क्रीड़ा करते तब उन्हें देखकर लगता जैसे वे शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष हैं । गाढ़ा नीला और पीत वस्त्र में ताल और गरुड़ध्वज वे सुवर्णशैल और अंजनशैल-से लगते । अचल और वासुदेव जब दोनों मिलकर खेलते तो उनके पदक्षेप से पृथ्वी कांपने लगती और वज्र-सा शब्द निकलता। शक्तिशाली हस्ती भी कुम्भ पर खेल-खेल में किया उनका मुष्ट्याघात सहन नहीं कर पाते थे। पर्वतशिखर को भी वे दीर्घबाहु बात ही बात में बल्मीक की तरह ढहा देते। अन्य की तो बात ही क्या राक्षसों का भी भय न कर वे शरणागत को शरण देते थे। त्रिपृष्ठ कभी भी अचल के बिना नहीं रह सकते थे। वे दो देह एक मन की तरह एक साथ ही काम करते।
(श्लोक २३४-२४५) __रत्नपुर नगर में प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव नामक एक राजा थे। वे दीर्घबाह अस्सी धनुष परिमित देही, नवोदित मेघ वर्ण और चौरासी लाख पूर्व की आयुष्य युक्त थे। हस्तीकुम्भ को विदीर्ण करने में सिंह को जैसे निवृत्ति नहीं होती वैसे ही शत्रुओं को निजित किए बिना उनके हाथों की खाज शान्त नहीं होती। महाशक्तिशाली दीर्घबाहु वे सर्वदा युद्ध के लिए व्यग्र रहते । वे विनीत शत्रु या युद्धरत शत्रु के द्वारा कभी तृप्त नहीं होते। उनका शौर्य शत्रुरमणियों के कमल-नयनों में सदा अश्रु प्रवाहित कराते । उनके लिए