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[१०९ करने के लिए छलना का आश्रय लिया गया है । अब मैं क्या करूँ ? क्रोध से अभिभूत कुमार ने हस्ती जैसे दन्त द्वारा आघात करता है उसी प्रकार निकटवर्ती फलभार से नत कपित्थ वृक्ष पर मुष्टि द्वारा आघात किया । आघात से गिरे कपित्थ वृक्ष के फलों से आवृत्त भूमि की ओर देखकर वे द्वार रक्षक से बोले - 'यदि मेरे पिता के अग्रज के प्रति मेरे मन में सम्मान भावना नहीं रहती तो इन फलों की तरह तुम्हारे मुण्डों से पृथ्वी को आवृत्त कर देता । सर्प - वेष्टन जैसी इस भोग-वासना को धिक्कार है जिसके लिए ऐसी लिया गया है ।'
छलना का आश्रय ( श्लोक १३० - १३६ )
ऐसा कहकर विश्वभूति ने तृण की भाँति प्रताद परित्याग कर मुनि सम्भूत से दीक्षा ग्रहण कर ली । ( श्लोक १३७ ) विश्वनन्दी को जब यह ज्ञात हुआ तब युवराज परिवार और अन्तःपुरिकाओं को लेकर वहाँ उपस्थित हुआ और मुनि सम्भूत को वन्दना कर विश्वभूति के पास गए और दुखार्त्त स्वर में अश्रु विसर्जन करते हुए बोले ' पुत्र, तुम जब भी कुछ करते हो मुझसे पूछकर ही करते हो । मेरे दुर्भाग्य के कारण ही क्या तुम इस कार्य को सहसा कर बैठे ? हे पुत्र, मुझे तुम पर ही आशा थी, भरोसा था । हे दुर्दिन के रक्षक, तुमने क्यों सहसा हमारी आशाओं को भंग कर डाला ? पुत्र, तुम व्रत का परित्याग कर आनन्द उपभोग करो । पुष्पकरण्डक उद्यान पूर्व की भांति ही सर्वदा तुम्हारे लिए खुला रहेगा ।'
( श्लोक १३८-१४२)
विश्वभूति ने उत्तर दिया- 'सांसारिक उपभोग में अब मेरी रुचि नहीं रही । इन्द्रिय- य-सुख वास्तव में दुःख का कारण है । स्वजनों के प्रति स्नेह संसार रूप कारागार की श्रृंखला जैसा है । मकड़े जिस प्रकार अपने ही जाल में आबद्ध हो जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य भी मोहपाश में आबद्ध रहता है । मुझपर कोई शासन न करे इसलिए अब मैं उत्तम तप और संयम की आराधना करूँगा । मेरे लिए परलोक में यही कल्याणकारी होगा ।' ( श्लोक १४३ - १४५)
प्रासाद को लौट
( श्लोक १४६ )
एक बार मुनि विश्वभूति विविध प्रकार की तपःसाधना करते हुए मथुरा नगरी के निकट आए। उस समय विशाखानन्दी
यह सुनकर राजा दुःखित अन्तःकरण से आए । विश्वभूति गुरु सहित प्रव्रजन करने लगे ।