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अर्हतों का अष्टाह्निका महोत्सव कर अपने-अपने आवास को लौट गए।
(श्लोक ९२-१०४) दूसरे दिन सुबह सिद्धार्थ नगर के राजा नन्द के घर खीरान्न ग्रहण कर प्रभु ने पारणा किया। देवों ने रत्नादि पंच-दिव्य प्रकट किए और राजा नन्द ने प्रभु ने जहाँ खड़े होकर पारणा किया था वहाँ रत्नमय वेदी का निर्माण करवाया। वहाँ से प्रभु वायु की तरह ग्राम, खान, नगर आदि में प्रव्रजन करने लगे।
__(श्लोक १०५-१०७) पूर्व विदेह की मुकुटमणि स्वरूप पुण्डरीकिनी नामक एक नगरी थी। उसका सूवल नामक राजा था। बहुत दिनों तक राज्य करने के पश्चात यथा समय उन्होंने मुनि वृषभ से दीक्षा ग्रहण कर ली। अप्रमत्त भाव से दीर्घकाल तक संयम और तप की आराधना कर काल प्राप्त होने पर अनुत्तर विमान में वे देव-रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक १०८-१०९) भरत क्षेत्र के राजगृह में विश्वनन्दी नामक एक राजा था। उसके प्रियंगु नामक रानी और विशाखनन्दी नामक पुत्र था। राजा विश्वनन्दी के विशाखभूति नामक एक छोटा भाई था । वह युवराज पद पर अधिष्ठित था। वह बुद्धिमान्, बलवा, विनीत और न्याय परायण था। विशाखभूति की रानी धारिणी के गर्भ से पूर्व जन्म के पुण्योदय से मरीचि का जोव पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। माता-पिता ने उसका नाम रखा विश्वभूति । धात्रियों द्वारा पालित होकर विश्वभूति क्रमशः बड़ा होने लगा। वह समस्त कलाओं में पारंगत
और समस्त गुणों से गुणान्वित था। क्रम से देह के अलंकार तुल्य यौवन को उसने प्राप्त किया।
(श्लोक ११०-११४) पृथ्वी पर मानो नन्दनवन अवतरित हआ है ऐसे पूष्पकरण्डक नामक नगरी के सर्वोत्तम और रमणीय उद्यान में अन्तःपुरिकाओं के साथ वे विहार करते थे। उसी उद्यान में एक दिन राजपुत्र विशाखनन्दी को भी अन्तःपुरिकाओं के साथ विहार करने की इच्छा हुई । किन्तु विश्वभूति वहाँ पहले से ही था अतः उसकी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। रानी प्रियंगु की दासियाँ उस उद्यान में फूल लेने जाती थीं। वहाँ उन्होंने विश्वभूति को अन्तःपुरिकाओं के साथ विहार करते और विशाखनन्दी को बाहर खड़े देखा । वे ईर्ष्यावश रानी प्रियंगु से