________________
१०२]
बीज वपन करने पर जिस प्रकार उससे प्रचुर शष्य उत्पन्न होता है उसी भांति उनमें इन्द्रिय-संयम के कारण अनेकानेक गुण उत्पन्न हो गए थे। 'श्री' और 'भी' उनमें एक साथ रहती थी जो कि स्वयंवर माल्य की तरह जो शरणापन्न थे उनके लिए आनन्दकारी व जो शत्र थे उनके लिए भीषण थी। दाक्षिण्य के साथ जैसे पात्रता, वाक्य के साथ जैसे सत्यता उसी प्रकार उनकी शक्ति के साथ कीत्ति मिली हुई थी। साहस, गरिमा, दृढ़ता आदि गुणों के वे प्रेक्षागृह या क्रीड़ा-स्थल थे। इन्द्र की शचि जैसी उनकी रानी थी विष्णु देवी। सौन्दर्य में तो मानो वे एक अन्य पृथ्वी थीं। तलवार की धार-सा था उनका सतीत्व । उनकी शिरीष कोमल देह का वही अलङ्कार था। शक्ति में जिस प्रकार कोई राजा के समकक्ष नहीं था उसी प्रकार सौन्दर्य और श्री में कोई उनके समतुल्य नहीं थीं। गति में वे मन्थर थीं; किन्तु धर्म-कार्य में नहीं। उनकी कटि क्षीण थी; किन्तु हृदय नहीं। उनका और राजा का दोनों का हृदय एक सूत्र में ग्रथित था। अतः एक दूसरे को आनन्दित करते हुए वे सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। (श्लोक १५-२९)
___ महाशुक्र विमान से नलिनीगुल्म का जीव अपनी आयुष्य पूर्ण कर ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी को चन्द्र जब श्रवणा नक्षत्र में था वहां से च्यव कर विष्णुदेवी के गर्भ में अवतरित हुआ। मुहूर्त भर के लिए नारकी जीवों को भी सुख का अनुभव हुआ। एक आलोक त्रिलोक में व्याप्त हो गया। क्योंकि अर्हतों के कल्याणकों के समय ऐसा होता है।
_ (श्लोक ३०-३३) वैताढय पर्वत का मानो छोटा संस्करण हो ऐसा एक श्वेत हस्ती, उच्च शृङ्ग-विशिष्ट शरद्कालीन मेघ-सा एक श्वेत वृष, छत्र-सी आकाश में उत्क्षिप्त पूछ वाला एक बलवान सिंह, मानो रानी का ही प्रतिरूप हो ऐसी अभिषिक्तमना महालक्ष्मी, मानो उनका यश-सौरभ हो ऐसी सुरभित पुष्प-माल्य, मानो अमृत रूप ज्योत्सना-सागर में स्नान कर उठा हो ऐसा पूर्ण चन्द्र, आकाश की चुडामणि-सा दीप्तिमान सूर्य, शाखा सहित वृक्ष-सा हवा में आन्दोलित मणिमय ध्वज-दण्ड, सौभाग्य का आधार रूप रत्नजड़ित पूर्ण कलश, पद्महृद का मानो दूसरा प्रतिरूप हो ऐसा पद्मसरोवर, आकाश को मानो छूना चाह रहा हो ऐसा उत्ताल