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देख सकता उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से प्रात्म-दर्शन नहीं होता उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है। (श्लोक ४६७-४६८)
३ वेदनीय-खड़ग की धार पर यदि मधु लगा रहे उसको चाटने पर सुख और दुःख का अनुभव रूप स्वभावयुक्त होने से यह दो प्रकार का होता है-शाता वेदनीय, अशाता वेदनीय ।
(श्लोक ४६९) ४ मोहनीय कर्म-ज्ञानी व्यक्तियों ने मोहनीय कर्म को मदिरा पान जैसा बतलाया है। कारण, इस कर्म के उदय से मोह प्राप्त प्रात्मा कृत्य-प्रकृत्य को नहीं समझ पाता। उसमें मिथ्यादृष्टि के कारण विपाककारी दर्शन मोहनीय कर्म नाम से और विरति विराग प्रावृतकारी चारित्र मोहनीय कर्म के नाम से अभिहित होता
- (श्लोक ४७०-४७१) ५ प्रायु कर्म-मनुष्य, तिथंच, नारकी और देव के भेद से यह चार प्रकार का है। आयुकर्म प्राणियों को अपने-अपने जन्म में कारागार की तरह आबद्ध कर रखता है। (श्लोक ४७२)
६ नाम कर्म-गति, जाति आदि वैचित्र्य प्रदान करने वाला नाम कर्म चित्रकार की भांति होता है। इसके विपाक से ही प्राणियों को शरीर मिलता है।
(श्लोक ४७३) ७ गोत्र कर्म-यह ऊँच-नीच के भेद से दो प्रकार का है। इससे प्राणियों को ऊँच-नीच गोत्र प्राप्त होता है। यह कर्म क्षीरपात्र और मदिरा-पात्र का भेद करने वाले कुम्भकार की तरह है।
___ (श्लोक ४७४) ८ अन्तराय कर्म-जिस कर्म के कारण दानादि लब्धि सफल नहीं होती उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। उसका स्वभाव भण्डारी जैसा है।
(श्लोक १७५) ___ इस प्रकार मूल प्रकृति का इस तरह से विपाक परिणाम का विचार करना विपाक विचय नामक धर्म ध्यान कहा जाता है।
(श्लोक ४७६) (४) संस्थान विचय-उत्पत्ति, स्थिति और लय रूप आदि अन्तहीन लोकाकृति के विचार को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं। यह लोक कटि देश पर हाथ रखे दोनों पाँवों को चौड़ा कर खड़े हुए पुरुष की प्राकृति की तरह है और यह उत्पत्ति, स्थिति और नाशवान पर्याय युक्त द्रव्य से परिपूर्ण है । यह लोक निम्न भाग