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(३) विपाक विचय-कर्म के फल को विपाक कहा जाता है। वह विपाक शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री द्वारा विचित्र प्रकार से उसका अनुभव होता है । स्त्री, पुष्पमाला और खाद्य द्रव्यों का उपभोग शुभ विपाक है और सर्प, शस्त्र, अग्नि, विष प्रादि पदार्थों का अनुभव अशुभ विपाक है। यह शुभाशुभ विपाक द्रव्य-विपाक कहा जाता है।
(श्लोक ४५७-४५८) अट्टालिका, उद्यान इत्यादि स्थानों में रहना शुभ विपाक है एवं श्मशान, जङ्गल आदि स्थानों में अशुभ विपाक है। यह शुभाशुभ विपाक क्षेत्र विपाक है।
(श्लोक ४५९) शीत, ग्रीष्म रहित बसन्त ऋतु कालीन स्थानों में भ्रमण शुभ विपाक और शीत, ग्रीष्म ऋतु कालीन स्थानों में भ्रमण अशुभ विपाक है । इन्हें काल-विपाक कहते हैं। (श्लोक ४६०)
___ मन की प्रसन्नता और सन्तोष की भावना शुभ विपाक है और क्रोध, अहङ्कार आदि रौद्र भावना अशुभ विपाक है। इन्हें भाव विपाक कहते हैं।
श्लोक ४६१) ___ कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव प्राप्त कर कर्म का उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम होता है। इस प्रकार द्रव्यादि सामग्री के योग से प्राणियों के कर्म अपना फल देते हैं। कर्म के मुख्य प्रांठ भेद हैं
. (श्लोक ४६२-४६४) १ ज्ञानावरणीय-आँखों पर कपड़े की पट्टी बंधीं रहने पर जिस प्रकार आँखें देख नहीं सकतीं उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से सर्वज्ञ स्वरूप जीव का ज्ञान रुद्ध होता है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। ज्ञान पांच प्रकार का है : मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्याय और केवल । इन पांचों के प्रावृत्त होने से ज्ञानावरणीय के भी इनके अनुसार पांच भेद होते हैं-मति ज्ञानावरणीय, श्रृंत ज्ञानावरणीय, अवधि ज्ञानावरणीय, मन:पर्याय ज्ञानावरणीय और केवल ज्ञानावरणीय ।
(श्लोक ४६५-४६६) २ दर्शनावरणीय-पांच निद्राएँ (निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि) और चार दर्शन (चक्षु दर्शन, प्रचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन) जो जो प्रावृत्त करता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है। राजा को देखने का अभिलाषी प्रहरी द्वारा रोके जाने पर जिस प्रकार राजा को नहीं