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लिया। चार रूप से बजाया गया चार प्रकार की वृत्ति से सम्पन्न चार तरह के अभिनय से युक्त और तीन प्रकार के तूर्यज्ञान का निदान रूप वाद्यशास्त्र उन्हों ने ग्रहण कर लिया। दन्तघात, मदावस्था, अङ्गलक्षण और चिकित्सा में पूर्ण ऐसा गज-लक्षण उन्होंने बिना उपदेश के ही ग्रहण कर लिया। वाहन विधि और चिकित्सा सहित प्रश्वलक्षणशास्त्र को उन्होंने अनुभव और पाठ से हृदयंगम कर लिया। धनुर्वेद और अन्य शास्त्रलक्षण भी केवल सुनने मात्र से खेल ही खेल में स्वनाम की तरह हृदय में धारण कर लिया । धनुष, फलक, असि, धूरी, शल्य, परशु, वर्शा, भिन्दीपाल, गदा, कंपन, दंड, शक्ति, शूल, हल, मूसल, पष्ठि, पट्टिस, दुम्फोट, भुसंढी, गोफरण, करणय, त्रिशूल, शंकु आदि अन्य शास्त्रों से सगर कुमार शास्त्र के अनुमान सहित युद्ध-विद्या में निपुण हो गए। पूर्णिमा के चन्द्र की तरह वे समस्त कलाओं में कुशल और अलङ्कार की तरह विनयादि गुणों से शोभित हो गए। (श्लोक २४-३८)
श्री अजितनाथ प्रभु की भक्ति सम्पन्न इन्दादि देवता पाकर समय-समय पर की सेवा करने लगे। कुछ देव अजितनाथ प्रभु की लीला देखने के लिए उनके समवयस्क बनकर उनके साथ क्रीड़ा करने लगे। प्रभु की वाणीरूप अमृत रस का पान करने की इच्छा से कुछ देव विचित्र नम्र उक्तियों से, प्रादर वचनों से उनके साथ बात-चीत करते । आज्ञा नहीं देने वाले प्रभु की आज्ञा पाने के उद्देश्य से क्रीड़ाद्यूत में बाजी लगाकर प्रभु के आदेश से कुछ देवता अपना धन हार जाते, कुछ देव उनके छड़ीदार बनते, कुछ मन्त्री कुछ उपाहनधारी और कुछ क्रीड़ारत प्रभु के समीप अस्त्रधारी होकर रहते । सगरकुमार ने भी शास्त्र अध्ययन कर सेवक की तरह अपनी सेवाएं उन्हें अर्पित की। उत्कृष्ट बुद्धि सम्पन्न सगर उन सभी संशयों को जिन्हें उपाध्याय दूर नहीं कर पाते अजितनाथ प्रभु से जिज्ञासा करते । भरत चक्रवर्ती भी इसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव से जिज्ञासा कर अपना संशय दूर करते थे। अजितकुमार मति, श्रत और प्रवधि ज्ञान से सगर का सन्देह, सूर्य जिस प्रकार अन्धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार दूर कर देते । तीन प्रयत्नों से दमन और प्रासन सुदृढ़ कर स्वबल से मदमत्त हाथी को वशीभूत कर सगर प्रभु को अपनी शक्ति का परिचय देते। वाहन रूप में नियुक्त और अनियुक्त प्रश्व को वे पांच चालों से प्रभु के सम्मुख चलाते । वे