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कर मेरुपर्वत की मोर गए। शब्द सुनकर मृग जिस प्रकार मागे जाने के लिए परस्पर धक्का देकर दौड़ते हैं देवता भी उसी प्रकार प्रभु के पीछे अहंपूर्विका से (मैं पागे जाऊंगा) दौड़ने लगे।
(श्लोक ३३७-३४६) प्रभु को जो दूर से देख रहे थे उनके दृष्टिपात से समस्त आकाश मानो विकसित नीलकमल से भर गया हो ऐसा प्रतीत हो हो रहा था। धनवान जिस प्रकार अपने धन की प्रोर दृष्टि रखते हैं उसी भांति देवता भी बार-बार पाकर प्रभु को देखने लगे। भीड़ के कारण वे एक दूसरे पर गिरते हुए परस्पर धक्कामुक्की करते हुए ऐसे लग रहे थे मानो समुद तरंग अपने घातप्रतिघात में उच्छ्वलित हो रहा है। आकाश में इन्द्र रूपी वाहन पर चढ़कर जाने के समय भगवान् के प्रागे चलमान ग्रह, नक्षत्र और तारे पुष्प समूह से लगने लगे। एक मुहर्त में इन्द मेरुपर्वत के शिखर स्थित दक्षिण दिशा की अति पाण्डुकवला नामक शिला के निकट पाए और वहां प्रभु को गोद में लेकर पूर्व दिशा की मोर मुखकर रत्न सिंहासन पर बैठ गए। (श्लोक ३४७-३५२)
उस समय ईशान देवलोक के इन्द्र का प्रासन कम्पित हुआ। उन्हें अवधिज्ञान से सर्वज्ञ का जन्म ज्ञात हुमा। उन्होंने भी सौधर्मेन्द्र की तरह सिंहासन का परित्याग कर पांच-सात कदम प्रभु के सूतिकागृह की मोर बढ़कर प्रभु को नमस्कार किया। उनकी आज्ञा से लघु पराक्रम नामक सेनापति ने उच्च स्वर विशिष्ट महाघोष नामक घण्टा बजाया । उसके शब्द से अट्ठाइस लक्ष विमान इस प्रकार गूज उठे जिस प्रकार हवा से उच्छ्वलित मौर अग्रगामी समुद्र के शब्द से तट स्थित पर्वत गुफा गूज जाती है। सुबह के समय शङ्खध्वनि के शब्द से जिस प्रकार निद्रित राजा जागत होते हैं उसी प्रकार उस विमान के देवता उस घण्टा नाद से जागृत हो गए । महाघोषा घण्टे का शब्द जब शान्त हुना तब सेनापति ने मेघ के समान गम्भीर शब्द से यह घोषणा की-जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र के मध्य भाग में विनीता नामक नगरी में जितशत्रु राजा की विजया रानी के गर्भ से द्वितीय तीर्थङ्कर का जन्म हुमा है। उनके जन्माभिषेक के लिए हमारे स्वामी इन्दु मेरुपर्वत पर जाएंगे। अतः हे देवगण, प्राप भी स्वामी के साथ जाने के लिए तैयार हो जाए। इस घोषणा को सुनकर जिस प्रकार मन्त्र के नाकर्षण से माकृष्ट होकर मनुष्य