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उनकी चारों ओर की दीवालों पर और स्तम्भों पर रत्नमय ईहामृग, वृषभ, अश्व, पुरुष, रुरुमृग, मकर, हंस, शरभ, चामर, हस्ती, किन्नर, वनलता और पद्मलता के समूह अंकित थे । ( श्लोक १५३-१६१ ) पहले अधोलोक की निवासिनी देवदुष्य वस्त्रधारिणी जिनके केशपाश पुष्प द्वारा अलंकृत थे ऐसी भोगकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, तोयधरा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ये आठ दिक्कुमारियाँ विमान पर चढ़ीं। इन प्रत्येक के साथ चारचार हजार सामानिक देवियां, चार महत्तरा देवियां, सात महा सैन्यदल, सात सेनापति, सोलह हजार आत्मरक्षक देवियां, अनेक व्यन्तरदेव श्रौर अनेक ऋद्धिसम्पन्ना देवियां थीं । वे सभी मनोहर गीत और नृत्य कर रही थीं। उनका विमान ईशान दिशा की ओर चला । तब उन्होंने वैक्रिय समुद्घात कर असंख्य योजन का एक दण्ड निर्माण किया । वैदूर्य रत्न, वज्ररत्न, लोहित, अंक, अञ्जन, अञ्जनपूलक, पूलक, ज्योतिरस, सौगन्धिक, अरिष्ट, स्फटिक, जातरूप और हंसगर्भ आदि अनेक प्रकार के उत्तम रत्नों और प्रसारगुल्म आदि मणियों के स्थूल पुद्गल दूर कर उनसे सूक्ष्म पुद्गल ग्रहरण किया फिर उनसे उत्तर वैक्रिय रूप का निर्माण किया । कहा भी गया है कि देवताओं को जन्म होते ही वैक्रिय लब्धि सिद्ध हो जाती है । तदुपरान्त उत्कृष्ट, त्वरित चल, प्रचण्ड, सिंह, उद्धत, यतना, छेक और दिव्य इन देवगति से समस्त ऋद्धि और समस्त बल सहित वे अयोध्या के जितशत्रु राजा के प्रासाद में आ पहुँचीं । ज्योतिष्कदेव अपने वृहद् विमान से जिस प्रकार मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हैं उसी प्रकार उन्होंने तीर्थङ्कर के सूतिकागृह की तीन प्रदक्षिणा दीं । विमान को धरती से चार अंगुल ऊँचा, ताकि जमीन स्पर्श न करे, ईशान कोण में स्थापित कर दिया । फिर विमान से उतरकर वे सूतिकागृह में जाकर जिनेन्द्र और जिन माता की प्रदक्षिणा देकर हाथ जोड़कर इस प्रकार बोलने लगीं- समस्त स्त्रियों ने श्रेष्ठ उदर में रत्न धारण करने वाली और जगत् में दीपक तुल्य पुत्र प्रसविनी हे जगन्माता, हम आपको नमस्कार करती हैं | आप जगत् में धन्य हैं, पवित्र हैं, उत्तम हैं । इस मनुष्यलोक में श्रापका जीवन सफल है। कारण, पुरुषों में रत्नरूप, दया के समुद्र, त्रिलोक वन्दनीय त्रिलोक के स्वामी धर्म चक्रवर्ती जगद्गुरु, जगबन्धु,