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था।
प्रकार वे पृथ्वी से द्रव्य ग्रहण कर पृथ्वी के कल्याण के लिए पृथ्वी को ही लौटा देते। वे नित्य धर्म का विचार करते, धर्म के लिए बोलते और धर्म के लिए कार्य करते। इस प्रकार मन, वचन, काया में उनके धर्म के लिए ही बन्धन थे। उनका सुमित्रविजय नामक एक छोटा भाई था। वे पराकमो थे। वे ही युवराज थे।
__(श्लोक १-१२) राजा जितशत्रु की विजयादेवी नामक रानी थी। वह पृथ्वी पर पाई हुई साक्षात् देवी थी। उनके दोनों हाथ, दोनों नेत्र और मुख मानो विकसित कमल के विभिन्न अंशों से रचे हुए प्रतीत होते थे। वह पृथ्वी की भूषण थीं और उनका भूषण था शील । उनकी देह पर जो प्राभूषणों का भार था वह तो मात्र व्यवहार के लिए ही था। वे समस्त कलाओं की ज्ञाता थीं और समस्त संसार में शोभित थीं। ऐसा लगता मानो सरस्वती या लक्ष्मी पृथ्वी पर निवास करने आई हैं। राजा सत्पुरुषों में उत्तम थे और रानी समस्त रमणियों में । अतः उनका मिलन गङ्गा और सागर की तरह उत्तम
(श्लोक १३-१७) विमलवाहन राजा का जीव विजय नामक विमान से च्यवकर रत्नखान-से विजयादेवी के गर्भ में वैशाख शुक्ला त्रयोदशी के दिन चन्द्र का योग जब रोहिणी नक्षत्र में आया तब विज्ञान (मतिश्रुत-अवधि) को धारण किए पुत्र रूप में पाया। उनके गर्भवास में आते ही एक क्षण के लिए नारकी जीवों को भी सुख प्राप्त हया । उसी रात के अति पवित्र चतुर्थ प्रहर में विजयादेवी ने चौदह स्वप्न देखे:
(श्लोक १८-२१) (१) हस्ती-प्रथम स्वप्न में मदगन्ध से प्राकृष्ट होकर जिस पर भ्रमर गुञ्जन कर रहा है और गर्जन में मेघ गर्जन को भी परास्त करने वाला ऐसे ऐरावत की तरह एक हस्ती देखा।
(२) वृषभ-द्वितीय स्वप्न में उच्च शृङ्ग से सुन्दर शरद ऋतु के मेघ के समान शुभ्र सुन्दर पद विशिष्ट मानो चलायमान कैलाश हो ऐसे एक वृषभ को देखा ।
(३) केशरीसिंह-तीसरे स्वप्न में उन्होंने चन्द्रकला-से वक्र नख एवं कुकुम और केशर के रंग को पराजित करने वाले केशर से प्रकाशित तरुण सिंह को देखा।