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भांति चारण और भाटों का कोलाहल एवं वाद्य-यन्त्रों की ध्वनि सबको आनन्दित करने लगी। घर में जैसे गहपति (सूर्य-चन्द्र) शोभित होते हैं उसी प्रकार सामने-पीछे दोनों पार्श्व में चलते हुए श्रीमन्तों और सामन्तों से वे सुशोभित हो रहे थे। नतवन्त कमल की तरह नतसिर और आज्ञाप्रार्थी द्वारपाल की भांति राजकुमार आगे-आगे चलने लगे। जल भरे घट लिए नगर-नारियाँ, कदमकदम पर मंगल करती हुई उन्हें देखने लगीं। विचित्र प्रकार के मंच से व्याप्त और पताका पंक्ति से शोभित एवं यक्ष कर्दम से पंकिल बने राजपथ को पवित्र करते हुए वे चलने लगे। (श्लोक २३५-२४३)
प्रत्येक मंच से गन्धर्वादि की तरह गीत गाकर वनिताएँ आरती उतार कर जो मंगल कर रही थीं वे उसे स्वीकार कर रहे थे । आनन्दित एवं चित्र-खचित से नगर के नर-नारी निश्चल नेत्रों से दूर से ही उस अभूतपूर्व दृश्य को देख रहे थे। मानो मन्त्र बल से आकृष्ट हो गए हों या इन्द्रजाल में प्राबद्ध इस भाँति लोग उनके पीछे-पीछे चलने लगे। पुण्य के धाम वे राजा इस प्रकार जब अरिदम प्राचार्य के चरणों में उस पवित्र उद्यान के निकट पाए तब शिविका से नीचे उतरे और तपस्वियों-सा मन लिए उद्यान में प्रविष्ट हुए। फिर उन्होंने पृथ्वी के भार-से अपने समस्त अलङ्कारों को शरीर से उतार दिया। कामदेव के शासन-सी मस्तक पर चिरकाल से धारण की हुई माला उतार कर फेंक दी। तदुपरान्त आचार्यश्री के बायीं ओर खड़े होकर चैत्यवन्दन कर आचार्य प्रदत्त माला अर्थात् रजोहरणादि मुनिचिह्न स्वीकार किए। 'मैं समस्त सावध योग का प्रत्याख्यान करता हूँ' ऐसा कहकर उन्होंने पंच मुष्ठि लोच किया। उदारहृदय वे राजा तत्काल ग्रहण किए उस व्रतलिंग में इस प्रकार शोभित हुए मानो बाल्यकाल से ही उन्होंने व्रत गहरण कर रखा हो।
(श्लोक २४४-२५३) . तत्पश्चात् गुरु को तीन प्रदक्षिणा देकर उन्होंने वन्दना की। तब गुरु ने धर्मदेशना प्रारम्भ की
___ 'इस अपार संसार समुद्र में दक्षिणावर्त शंख की भांति मनुष्य जन्म बहुत कठिनता से मिलता है। मनुष्य-जन्म प्राप्त भी हो जाए तो बोधि-बीज मिलना दुष्कर है। यदि यह भी प्राप्त हो जाए तो महाव्रतों का योग तो पुण्य योग से ही मिलता है। जब तक वर्षा ऋतु के मेघ उदित नहीं होते तभी तक धरती पर सूर्य का सन्ताप