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भी परित्याग कर देना । मृगया द्यूत और मदिरा पान सदा सदा के लिए छोड़ देना । कारण, राजा जिस प्रकार तपस्वियों की तपस्या का भागीदार होता है उसी प्रकार पाप का भी भागीदार होता है । तुम काम, क्रोधादि अन्तरंग शत्रुनों को जीतना । कारण, इन्हें जय किए बिना बाह्य शत्रुनों पर जय करना व्यर्थ है । चतुर नायक जिस प्रकार अनेक पत्नियों का यथा समय उपभोग करता है तुम भी उसी प्रकार धर्म, अर्थ और काम का यथा समय भोग करना । किसी को भी अन्य का बाधक मत बनने देना । इन तीनों की साधना इस प्रकार करना ताकि पुरुषार्थ मोक्ष की साधना में भी कोई विघ्न न आए, तुम्हारा उत्साह भंग न होए ।'
( श्लोक २१०-२२६ ) ऐसा कहकर राजा विमलवाहन जब चुप हो गए तब कुमार ने, ऐसा हो होगा, कहकर उनके बचनों को अंगीकार किया । फिर कुमार ने सिंहासन से उतरकर व्रत ग्रहरण में उद्योगी पिता को हाथों का सहारा दिया । इस प्रकार छड़ीदार से भी स्वयं को छोटा समझने वाले पुत्र के हाथों का सहारा लेकर राजा अनेक कलशों से भूषित स्नानगृह में गए। वहाँ उन्होंने मकरमुखी स्वर्णभारी से निकलते मेघ धारा से जल से स्नान किया । कोमल रेशमी वस्त्रों से देह पोंछी । सर्वाङ्ग में गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। जो गूथना जानते हैं ऐसे पुरुषों ने नील कमल-सा श्याम और पुष्पगर्भ से राजा के केशपाशों को चन्द्रगर्भित मेघ की तरह सुशोभित किया । विशाल निर्मल स्वच्छ और अपनी ही तरह उत्तम गुणयुक्त दिव्य और मांगलिक दोनों वस्त्र राजा ने धारण किए। फिर राजानों में किरीट तुल्य उन राजा ने कुमार द्वारा लाए स्वर्ण और माणिक्य खचित मुकुट को मस्तक पर धाररण किया । ( श्लोक २२७ - २३४) गुण रूप अलङ्कार धारण करने वाले उन राजा ने हार, भुजबन्ध, कुण्डलादि अन्य अलङ्कार भी धारण किए । मानो द्वितीय कल्पवृक्ष हों इस प्रकार याचकों को रत्न, स्वर्ण, रौप्य, वस्त्र एवं अन्य वस्तुए दान करने लगे । फिर कुबेर जिस प्रकार पुष्पक विमान में बैठता है उसी प्रकार नरकुंजर राजा विमलवाहन सौ पुरुषों से उठायी गयी शिविका में बैठे । मानो साक्षात् तीन रत्न ( दर्शन, ज्ञान, चारित्र) प्राकर उनकी सेवा कर रहे हैं इस प्रकार दो चंवर और एक छत्र उनकी सेवा करने लगे । जैसे दो मित्र मिले हों इस