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लिए इस राज्य का त्याग कर दूंगा। मैं तुमसे बाधित नहीं हूँ। अन्त में इस असहाय राज्य को तुम्हें ग्रहण करना ही होगा। फिर साथ-साथ मेरी आज्ञा उल्लंघन का पाप भी ढोना पड़ेगा। इसलिए हे पुत्र मुझ पर भक्तिवान् तुम विचार कर अथवा न कर मुझे सुखी बनाने के लिए मेरी प्राज्ञा स्वीकार करो।' (श्लोक १८६-१९२)
मन्त्री भी बोले-'हे कुमार, आप तो स्वभावतः ही विवेकी हैं, आपकी उक्ति योग्य है फिर भी पिताजी जो प्राज्ञा दे रहे हैं उसे स्वीकार करना ही उचित है। कारण, गुरुजनों की प्राज्ञा स्वीकार करना जो गुण है वह सब गुणों में श्रेष्ठ हैं। आपके पिता ने भी अपने पिता की आज्ञा स्वीकार की थी। यह बात हम जानते हैं । जिसकी आज्ञा पालनीय ही होती है वह पिता के सिवाय और कौन हो सकता है ?'
(श्लोक १९३-१९५) पिता और मन्त्रियों का ऐसा कथन सुनकर कुमार ने सिर नीचे झुका लिया और गदगद कण्ठ से बोले-'स्वामी की आज्ञा मुझे स्वीकार है।' उस समय राजा स्व-प्राज्ञा का पालन करने वाले पुत्र पर इस प्रकार प्रीतिमय हुए जिस प्रकार चाँद से कुमुद और मेघ से मयूर प्रीतिवान् होता है। प्रसन्न हुए राजा ने अभिषेक करने योग्य अपने पुत्र को अपने हाथ से सिंहासन पर बैठाया फिर उनकी प्राज्ञा से अनुचरगण मेघ की तरह तीर्थों का पवित्र जल ले आए। मङ्गल वाद्य बजने लगे, राजा ने तीर्थ जल से कुमार का अभिषेक किया। उसी समय अन्य सामन्त राजा भी आकर अभिषेक करने लगे और भक्तिभाव से नवोदित सूर्य की तरह उन्हें नमस्कार किया। पिता की प्राज्ञा से उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किया। इससे वे इस प्रकार शोभित होने लगे जिस प्रकार शरद ऋतु के शुभ्र मेघ से पर्वत शोभित होता है। तदुपरान्त वीराङ्गनाओं ने आकर चन्द्रिकापुर की भांति गोशोर्ष चन्दन का उनके समस्त शरीर पर लेप किया। उन्होंने जो मुक्तालङ्कार धारण किए थे वे ऐसे लग रहे थे मानो आकाश के तारों को लाकर सूत्र में पिरोकर इन अलङ्कारों को तैयार किया गया है। उनके प्रचण्ड प्रताप हों ऐसे मारिणक्य की द्युति से शोभित मुकुट उनके मस्तक पर रखा एवं क्षणमात्र में जैसे यश प्रकाशित हो गया है ऐसा निर्मल छत्र उनके माथे के ऊपर धारण किया गया। दोनों ओर वीराङ्गनाएँ मानो राज्य सम्पत्ति रूप लता के पुष्पों को सूचित करती हो इस प्रकार