________________
12] का 'हे वत्स, हमारे वंश के पूर्व राजागण दया बुद्धि से लोभरहित होकर वन में अकेले रहने वाली गाय की तरह इस पृथ्वी का पालन करते थे। जब उनका पुत्र समर्थ हो जाता तब वे पृथ्वीपालन का भार उस पर इस प्रकार न्यस्त कर देते जिस प्रकार बैलों के स्कन्धों पर खींचने का धुरा रख दिया जाता है। त्रैलोक्य की वस्तुओं को अनित्य समझकर उनका त्याग कर शाश्वत पद अर्थात् मोक्ष के लिए वे प्रस्तुत हो जाते थे । हमारे कोई भी पूर्व पुरुष इतने दिनों तक गहवास में नहीं रहे जितना मैं रहा हूं। यह मेरा कितना बड़ा प्रमाद था। हे पुत्र, अतः तुम अब राज्यभार ग्रहण करो। मेरा भार तुम ले लोगे तो मैं व्रत धारण कर संसार समुद्र का अतिक्रम करूंगा।'
(श्लोक १७५-१७९) राजा का कथन सुनकर कुमार उसी प्रकार निष्प्रभ हो गए जिस प्रकार हिम से कमल निष्प्रभ हो जाता है। आँखों में आंसू भरकर वे बोले-'हे देव, मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया है जो आप मुझ से इस प्रकार रुष्ट हुए हैं। आप अपनी आत्मा के प्रतिबिम्ब अपने अनुचर-से पुत्र को ऐसी आज्ञा क्यों दे रहे हैं ? या फिर इस पृथ्वी ने ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि जिसका आप आज तक पालन करते रहे उसको तृण की तरह त्याग रहे हैं ? पूज्य पिताहीन इस राज्य की मुझे माकांक्षा नहीं। यदि सरोवर जलपूर्ण रहे; किन्तु उसमें कमल न हो तो भ्रमर के वह किस काम आ सकता है ? हाय, लगता है प्राज देव मेरे प्रतिकूल हो गए हैं। मेरा दुर्भाग्य आज प्रकट हुमा है। इसीलिए पाषाण खण्ड की तरह मेरा त्याग कर मेरे पिता मुझे ऐसा आदेश दे रहे हैं। मैं किसी भी प्रकार इस पृथ्वी को ग्रहण नहीं करूंगा और गुरुजन की प्राज्ञा का जो उल्लंघन कर रहा हूं उसका प्रायश्चित करूंगा।' (श्लोक १८०-१८५)
पुत्र के ऐसे प्राज्ञा उल्लंघनकारी वचनों को सुनकर राजा दुःखी भी हुए सुखी भी हुए; किन्तु बोले-'तुम एक साथ हो समर्थ विद्वान् और विवेकी भी हो फिर स्नेह के कारण अज्ञानवश बिना विचारे ऐसी बात क्यों कह रहे हो? कुलीन पुत्रों के लिए गुरुजनों की प्राज्ञा विचार का विषय नहीं होता। मेरी उक्ति तो युक्तिसंगत है। अत: विचार कर इसे ग्रहण करो । योग्य पुत्र पिता का भार वहन करता ही है । सिंहनी शावक कुछ बड़ा होने पर निर्भय होकर विचरता है। हे वत्स, तुम्हारी इच्छा के बिना ही मैं मोक्ष प्राप्ति के