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प्राचार्य का कथन सुनकर राजापों में सूर्य-से वे राजा उन्हें प्रणाम कर उठ खड़े हुए क्योंकि मनस्वी पुरुष निश्चित कार्य में पालस्य नहीं करते । यद्यपि राजा का चित्त प्राचार्य के चरणकमलों में निमग्न था फिर भी जिस प्रकार दुर्भागा स्त्री के पास जबर्दस्ती जाता है उसी प्रकार वे राजमहल में गए। वहां सिंहासन पर बैठकर प्रासाद के स्तम्भ से मन्त्रियों को बुलवाया और उन्हें बोले :
(श्लोक १४३-१४५) 'हे मन्त्रीगण, परम्परा से जिस प्रकार मैं इस राज्य रूपी गृह का राजा हं उसी प्रकार स्वामी के हित के लिए एक महाव्रतधारी तुम सब मन्त्री हो । तुम लोगों की मन्त्रणा से ही मैंने पृथ्वी को जय किया है। इसमें मेरा बाहुबल तो निमित्त मात्र है। पृथ्वी का भार जिस प्रकार घनवात, घनोदधि और तनुवात ने धारण कर रखा है उसी प्रकार तुम लोगों ने ही मेरे राज्य को धारण कर रखा है । मैं तो देवों की तरह प्रमादी बना दिन-रात विषयों में, विविध क्रीड़ामों के रस में, लीन रहता हूँ । रात्रि के समय प्रदीप के आलोक में जिस प्रकार विवर देखा जा सकता है उसी प्रकार अनन्त भवों तक दुःखदायी इस प्रमाद को गुरु-कृपा रूपी प्रदीप के आलोक में अब देख सका हूँ। मैंने अज्ञान के कारण चिरकाल से इस प्रात्मा को वंचित कर रखा था। कारण, विस्तृत होते प्रगाढ़ अन्धकार में नेत्रवान पुरुष भी क्या कर सकता है ? हाय ! इतने दिनों तक के दुर्जन इन्द्रियां मुझे वायुवेगी अश्व की तरह उन्मार्ग पर ले जाती रहीं। मैं दुष्ट बुद्धि विभीतक वृक्ष की छाया-सेवन की तरह परिणाम में अनर्थकारी विषय-वासनाओं की प्राज तक सेवा करता रहा हूँ । गन्ध हस्ती जिस प्रकार अन्य हस्तियों का वध करता है उसी प्रकार अन्य के पराक्रम को नहीं सहने बाले मैंने दिग्विजय में अनेक निरपराधी राजामों का वध किया है। मैं अन्य राजानों के साथ सन्धि आदि गुरणों से जुड़ता रहा; किन्तु उसमें तालवक्ष की छाया की तरह सत्य कितना था ? अर्थात् बिल्कुल नहीं । जन्म से ही मैंने अन्य राजों के राज्यों को छीन लेने में प्रदत्तादान ग्रहणकारी का ही आचरण किया है। रतिसागर में डबे रहने के कारण कामदेव का शिष्य हो इस प्रकार निरन्तर अब्रह्मचर्य का ही सेवन किया है । मैं प्राप्त अर्थ से अतृप्त था। अतः अप्राप्त अर्थ को पाने की ही सदैव इच्छा रखता था। एतदर्थ प्राज तक महामूर्छा में अभिभूत था।