________________
8]
विस्तार ने मानो पथिकों के लिए अनायास ही रतिमण्डप की रचना कर दी हो एवं मेरुपर्वत की अधित्यका से मानो भद्रशालवन उठकर वहां चला आया हो इस प्रकार उस समय वह अत्यन्त सुन्दर लग रहा था ।
( श्लोक ९७ - १०९ )
'अनेक दिनों पश्चात् जब मैं दिग्विजय कर उस उद्यान के निकट लौटा, वाहन से उतर कर सपरिवार मानन्द उल्लास से भरा उस उद्यान के भीतर गया तो उसका दूसरा ही रूप देखा । मैं सोचने लगा - कहीं मैं दूसरे उद्यान में तो नहीं आ पहुँचा ? या यह उद्यान ही पूर्णतः बदल गया है ? कहीं यह सब इन्द्रजाल तो नहीं ? कहां सूर्य किरणों को प्राच्छादित करने वाली वे पत्र लताएँ, कहां उत्ताप का एकच्छत्र रूप लिए यह पत्र - विरलता ? कहां निकुजों में विश्रामकारी रमणियों की रमणीयता, कहां निद्रित पड़े अजगरों की दारुणता ? कहां मयूर और कोकिलानों का मधुर श्रालाप, कहां चपल कागों के कर्णकटु शब्दों से वद्धित व्याकुलता ? कहां लम्बी आर्द्र वल्कल वस्त्रों की सघनता, कहां सूखी डालियों पर भूलते हुए भुजङ्ग समुदाय ? कहां सुगन्धित पुष्पों से सुरभित दिक्समूह, कहां कौवे कबूतरों आदि की विष्ठानों से दुर्गन्धमय बना यह स्थान ? कहां पुष्परसों से सिंचित वह भूमि, कहां जलती हुई चुल्ली पर तपती दुःखदायी बालुकाराशि ? कहां फल-भारों से झुके वृक्ष, कहां दीमक लगे खोखले तरु खण्ड ? अनेक लतानों से पल्लवित कहां वे सुन्दर झाड़, कहां सर्प परित्यक्त कंचुकी-से भयंकर बने ये झाड़ ? कहां वृक्षों के नीचे भरे हुए ढेर के ढेर फूल, कहां उगे हुए ये कण्टक समूह ? इस प्रकार असुन्दर बने उस उद्यान को देखकर सोचने लगा - जिस प्रकार यह उद्यान सुन्दर से असुन्दर में बदल गया है उस प्रकार ही है समस्त संसारी जीवों की भी परिणति । जो मनुष्य स्व-सौन्दर्य से कामदेव-सा प्रतीत होता है वही मनुष्य भयङ्कर रोग होने से कुरूप हो जाता है । जो मनुष्य सुन्दर वाणी में वृहस्पति के समान उत्तम भाषण दे सकता है वही जीभ प्रइष्ट हो जाने पर सदा के लिए गूंगा हो जाता है । जो मनुष्य अपनी सुन्दर गति के कारण जातिवान् अश्व की तरह विचरण कर सकता है वही वायु आदि रोगों से पीड़ित होने पर चिरकाल के लिए पंगु बन जाता है । जो मनुष्य अपने बलिष्ठ हाथों से हस्ती मल्ल के समान काम कर सकता है वही रोगादि से हाथों की शक्ति खोकर