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[157 अधर शुष्क हो गए थे - इस प्रकार रानियाँ खूब रुदन कर रही थीं । (श्लोक १७९-१८२)
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चक्रवर्ती सगर भी उस समय धैर्य, लज्जा और विवेक का परित्याग कर रानियों की तरह ही शोक से व्याकुल होकर इस प्रकार विलाप करने लगे – हे कुमारो, तुम लोग कहाँ हो ? अब भ्रमरण करना बन्द कसे । अब तुम लोगों के राज्य ग्रहरण और व्रत ग्रहरण करने का समय हो गया है । इस ब्राह्मण ने सत्य ही कहा है । और कोई मुझे नहीं कहता कि चोर की तरह कपटी भाग्य द्वारा तुम लुट गए हो। हे देव, तुम कहाँ हो ? हे प्रथम नागराज ज्वलनप्रभ तुम कहाँ हो ? क्षत्रियों के लिए प्रयोग्य श्राचरण करके अब तुम कहाँ जाम्रोगे ? हे सेनापति, तुम्हारे भुजदण्डों की प्रचण्डता कहाँ गई ? हे पुरोहितरत्न, तुम्हारा क्षेमकरण कहाँ गया ? हे वर्द्धकीरत्न, तुम्हारा, दुर्ग रचना कौशल क्या गल गया था ? हे गृहीरत्न, तुम अपनी संजीवनी प्रौषधि क्या कहीं भूल गए थे ? हे गजरत्न, क्या उस समय तुम्हें गजनिमीलिका हुई थी ? हे अश्वरत्न क्या उस समय तुम्हें शूल ने पीड़ित कर रखा था? हे चक्र, हे दण्ड, हे खड्ग, तुम क्या उस समय कहीं छिप गए थे ? हे मरिण और कांकणीरत्न, तुम लोग भी क्या उस समय दिवस के चन्द्र की तरह तेजोहीन हो गए थे ? हे छत्ररत्न, हे चर्मरत्न, तुम लोग क्या वाद्ययन्त्रों के चमड़े की तरह फट गए थे ? हे नवनिधि, क्या तुम्हें पृथ्वी ने ग्रस लिया था ? मैंने तुम लोगों के भरोसे निःशङ्क होकर कुमारों को भेज दिया था क्रीड़ारत राजकुमारों की उस अधम नाग से रक्षा क्यों नहीं की ? अब सर्वनाश हो जाने के बाद मैं क्या कर सकता हूं? मैं वंशसहित ज्वलनप्रभ का विनाश कर सकता हूँ; किन्तु क्या उससे कुमार पुनः जीवित हो सकेंगे ? भगवान ऋषभ के वंश में प्राजतक कोई भी इस प्रकार नहीं मरा है । पुत्र, तुमलोग ऐसी लज्जाजनक मृत्यु को कैसे प्राप्त हुए ? ( श्लोक १८३ - १९४) मेरे समस्त पूर्व पुरुष प्रायु पूर्ण होने पर ही मृत्यु को प्राप्त करने वाले हुए थे । उन्होंने प्रन्त में दीक्षा ग्रहण करके स्वर्ग या मोक्ष पाया है । हे पुत्रगण, जिस प्रकार अरण्य में उद्गत वृक्ष का दोहद पूर्ण नहीं होता उसी प्रकार तुम लोगों के स्वेच्छा विहार का दोहद पूर्ण नहीं हुआ । ऐसा लगता है उदित हुए पूर्णचन्द्र को
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