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शुद्धभट ने पूछा- भट्टिनी ! तुमने मनुष्य जन्म का फल
( श्लोक ८८८)
सम्यक्त्व को बताया वह क्या वस्तु है ? Fac सुलक्षणा बोली- हे प्रार्यपुत्र, वह प्रियजनों को बताने योग्य है। फिर आप तो मुझे प्रारणों से भी प्रिय हैं अतः आपको बतला रही हूं। सुनिए ? (श्लोक ८८९)
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सुदेव में देवत्व बुद्धि, सुगुरु में गुरुबुद्धि औौर शुद्ध धर्म में धर्मबुद्धि रखना ही सम्यक्त्व है। कुदेव में देवबुद्धि, कुगुरु में गुरुबुद्धि और कुधर्म में धर्मबुद्धि रखना विपर्यास भाव होने से मिथ्यात्व है । ( श्लोक ८९० - ८९१) सर्वज्ञ, रागद्वेष को जीतने वाले, त्रिलोक में पूजित, यथायोग्य अर्थ समझाने में सक्षम अर्हत् परमेश्वर देव है । इन्हीं देव का ध्यान करना, उपासना करना, इनकी शरण ग्रहण करना और यदि ज्ञान रहे तो उनके उपदेशों का पालन करना उचित है । जो देव स्त्री, प्रक्षसूत्रादि, रागादि दोष के से अंकित है और जो कृपा और दण्डादि देने में तत्पर हैं वे कभी मुक्ति देने में समर्थ नहीं होते । नाटक, अट्टहास, संगीत आदि उपाधि से जो चंचल हैं वे प्रारणी को मोक्ष में कैसे ले जा सकते हैं ।
शस्त्र,
(श्लोक ८९२-८९५) महाव्रत धारणकारी, धैर्यधारी, भिक्षामात्र से जीवन निर्वाहकारी और सर्वदा सामायिक में अवस्थानकारी जो धर्मोपदेशक हैं उन्हें गुरु कहा जाता है । समस्त वस्तुओं की इच्छा करने वाले, समस्त प्रकार के प्रहार करने वाले, परिग्रहधारी, श्रब्रह्मचारी और श्रौर मिथ्या उपदेश देने वाले गुरु नहीं हो सकते । जो गुरु स्वयं ही दरिद्र है वह दूसरों को धनवान कैसे बना सकता है ?
(श्लोक ८९६-८९८ )
दुर्गति में पतित प्राणी को जो धारण करे वह धर्म है । सर्वज्ञ कथित दस प्रकार के संयमादि धर्म मुक्ति के कारण हैं । जो वाक्य अपौरुषेय हैं वह असम्भव है अतः वह प्रमाणभूत नहीं है । कारण, प्रमाण ग्राम पुरुषों के अधीन है। मिथ्यादृष्टि मनुष्यों द्वारा स्वीकृत हिंसादि दोष से कलुषित नाम मात्र के धर्म को यदि धर्म कहकर स्वीकार किया जाता है तो वह संसार परिभ्रमरण का ही कारण होगा । यदि राग-द्वेष युक्त देव को देव माना जाए, अब्रह्मचारी को गुरु माना जाए और दयाहीन धर्म को धर्म कहकर
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