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अट्ठाईस लाख, सनत्कुमार में बारह लाख, माहेन्द में आठ लाख, ब्रह्म देव लोक में चार लाख, लान्तक देवलोक में पचास हजार शुक्र में चालीस हजार, सहस्रार में छः हजार नवम् और दशवें में चार सौ प्रारण और अच्युत देवलोक में तीन सौ विमान हैं। प्रारम्भ के तीन ग्रंवेयक में एक सौ ग्यारह विमान अवस्थित हैं। अनुत्तर विमान मात्र पांच हैं। इस प्रकार सब मिलाकर चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस विमान हैं। (श्लोक ७७५-७८०)
अनुत्तर विमान के चार विजयों के विमानों में द्विचरिम (दो जन्म के पश्चात् मोक्ष जाने वाले) देव रहते हैं और पंचम सर्वार्थ सिद्ध विमान में एक चरिम देवता रहते है। सौधर्म देवलोक से सर्वार्थ सिद्धि विमान तक के देवों की स्थिति, कान्ति, प्रभाव, लेश्या, विशुद्धि, सुख, इन्दिय विषय और अवधिज्ञान पूर्वो की अपेक्षा बाद वालों में अधिक से अधिक होती जाती है। परिग्रह, अभिमान, शरीर और गति क्रिया अनुक्रम से कम होती है। सबसे जघन्य स्थितियुक्त देवता सात स्तोकों के अन्तर में श्वांस ग्रहण करते हैं
और चतुर्थ भक्त (एक रात दिन) के अन्तर से प्रहार ग्रहण करते हैं। पल्योपम स्थितियुक्त देवता एक दिन के व्यवधान से श्वांस ग्रहण करते हैं और पृथक्त (दो सौ नब्बे) दिन के व्यवधान से आहार ग्रहण करते हैं। जो देव सागरोपम स्थितियुक्त हैं वे देव इतने ही पक्ष बाद श्वास ग्रहण करते हैं और इतने ही हजार वर्ष बाद प्राहार ग्रहण करते हैं। अर्थात् तैंतीस सागरोपम की आयु युक्त सर्वार्थसिद्ध के देवता प्रति तैतीस पक्ष के व्यवधान में श्वास ग्रहण करते हैं और प्रति तैंतीस हजार वर्ष के पश्चात् आहार ग्रहण करते हैं। प्रायः समस्त देवता संवेदनशील होते हैं । कभी असवेदना हो भी जाय तो उसकी स्थिति अन्तर्मुहर्त की होती है। मुहर्त के बाद असवेदना नहीं रहती। देवियों की उत्पत्ति ईशान देवलोक पर्यन्त ही है। अच्युत देवलोक के देवतानों तक देव गमनागमन करते हैं।
(श्लोक ७८१-८९) ज्योतिष्क देवलोक तक तापस देव होते हैं। ब्रह्मदेवलोक तक चरक (अध्ययन के लिए व्रत ग्रहणकारी) और परिव्राजक देव होते हैं। सहस्रार देवलोक तक तिर्यचों की उत्पत्ति होती है और अच्युत देवलोक तक श्रावकों की। मिथ्यादष्टि होने पर भी जैन लिंगी बनकर यथार्थरूप से समाचारी का पालन करने वालों की