________________
98]
1
कुछ अधिक विस्तारयुक्त है और ऊपर एक हजार योजन विस्तृत है । इस प्रकार यह क्षुद्र के समान ( प्रर्थात् पचासी हजार योजन) ऊँचा है । इसके पूर्व में देवरमण, दक्षिण में नित्योद्योत, पश्चिम में स्वयंप्रभ नामक और उत्तर में रमणीय नाम के चार अंजनाचल हैं। इन प्रत्येक पर्वतों पर एक सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और बहत्तर योजन ऊँचा प्रर्हत् भगवान का चैत्य है । प्रत्येक चैत्य के चार-चार द्वार हैं । प्रत्येक द्वार सोलह योजन ॐ चे हैं । प्रवेश में आठ योजन और विस्तार में भी आठ योजन हैं । उनके द्वार वैमानिक, असुरकुमार, नागकुमार और सुवर्णकुमारों के श्राश्रय रूप हैं और उनके नाम से ही वे प्रसिद्ध हैं । उन चारों द्वारों के मध्य में सोलह योजन लम्बी, सोलह योजन चौड़ी और आठ योजन ऊँची एक मणिपीठिका के ऊपर सर्व रत्नमय देव छन्द है । वे विस्तार और उच्चता में पीठिका से बड़े हैं । प्रत्येक देवछन्दक पर ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण ये चार नाम के पर्यंकासन में बैठे स्व-परिवार सहित रत्नमय शाश्वत तों की एक सौ आठ सुन्दर प्रतिमा हैं । हरेक प्रतिमा के साथ परिवार के समान दो-दो नाग, यक्ष, भूत और कुण्डधारी देवों की प्रतिमाएँ हैं । दोनों श्रोर दो चँवरधारिणी प्रतिमाए हैं और प्रत्येक प्रतिमा के पीछे एक-एक छत्रधारिणी प्रतिमा है । प्रत्येक प्रतिमा के सम्मुख धूपदानी, माला, घण्टा, भ्रष्ट मंगलीक, ध्वज, छत्र, तोरण, चंगेरी, अनेक पुष्पपात्र, श्रासन, सोलह पूर्ण कलश और अन्य अलंकार हैं । वहाँ की नीचे की जमीन में स्वर्ण की सुन्दर रजवाली रेत है । आयतन के समान ही उनके सम्मुख मुख्य मण्डप, प्रेक्षा मण्डप, अक्ष वाटिका और मणिपीठिका है । वहाँ रमणीय स्तूप प्रतिमा है, सुन्दर चैत्य वृक्ष और इन्द्रध्वज हैं और अंजनादि के चारों ओर लाख योजन प्रमाण वाली वापिकाएँ, यानि कुल सोलह वापिकाएं हैं। जैसे- नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूपा, सुदर्शना, नन्दोत्तरा, नन्दा, सुनन्दा, नन्दिवर्द्धना, भद्रा, विशाला, कुमुदा, पुण्डरीकणिका, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती र अपराजिता । उन प्रत्येक वापिका से पाँच सौ योजन दूर अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र नामक चार वृहद् उद्यान हैं । वे पांच सौ योजन चौड़े और एक लाख योजन लम्बे हैं । प्रत्येक वापिका में स्फटिकमरिण की पल्याकृति विशिष्ट सुन्दर