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________________ ३०८] गमन उत्सव किया। भगवान ऋषभ जिस प्रकार प्रथम तीर्थंकर हुए उसी प्रकार यह पर्वत भी उसी समय से प्रथम तीर्थरूप बना। (श्लोक ४३३.४४६) जहाँ एक साधु भी सिद्ध होता है वह स्थान पवित्र तीर्थ बन जाता है फिर वहाँ जहाँ एक कोटि मुनि सिद्ध हुए उसकी पवित्रता और उत्कृष्टता के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ? (श्लोक ४४७) राजा भरत ने इस शत्रुजय पर्वत पर मेरु पर्वत के शिखर से स्पर्धा करने वाला रत्न शिलामय एक चैत्य निर्मित करवाया । उसमें अन्तःकरण में जिस प्रकार चेतना रहती है उसी प्रकार पुण्डरीक की प्रतिमा सहित भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की। (श्लोक ४४८-४४९) भगवान ऋषभ पृथक-पृथक देशों में प्रव्रजन कर जैसे अन्ध को चक्षुदान दिया जाता है उसी प्रकार भव्य जीवों को बोधि बीज दान करने का अनुग्रह कर रहे थे। प्रभु के केवल ज्ञान होने के बाद प्रभु के परिवार में चौरासी हजार साधु, तीन लाख साध्वियाँ, तीन लाख पचास हजार श्रावक और पाँच लाख चौवन हजार श्राविकाएँ, चार हजार सात सौ पचास चौदह पूर्वी, नौ हजार अवधिज्ञानी, बोस हजार केवलज्ञानी, छह सौ वैक्रिय लब्धिवान, बाहर हजार छह सौ पचास मनःपर्याय ज्ञानी, इतने ही वादी और बाइस हजार अनुत्तर विमान वासी महात्मा थे। प्रभु ने व्यवहार से जैसे प्रजा की स्थापना की थी उसी प्रकार धर्म मार्ग और चतुर्विध संघ की भी स्थापना की। दीक्षा से एक लक्ष पूर्व व्यतीत होने पर उन्होंने अपना मोक्ष समय निकट जानकर अष्टापद को ओर विहार किया। उस पर्वत के निकट पाकर प्रभु ने परिवार सहित मोक्ष रूप प्रासाद की सीढ़ियों की तरह उस पर आरोहण किया। वहाँ दस हजार मुनियों के साथ भगवान ने चतुर्दश तप कर पादोपगमन अनशन किया। (श्लोक ४५-४६१) पर्वतपालक ने प्रभु को इस प्रकार रहते देख तत्काल जाकर भरत को संवाद दिया। भगवान ने चतुर्विध पाहार का त्याग किया है यह सुनकर भरतपति को इतना दुःख हा मानो वे शूल से विद्ध हो गए हों। वृक्ष जिस प्रकार जलविन्दु का परित्याग करता है उसी प्रकार अति शोक से पीड़ित होने के कारण उनकी प्रांखों से प्रश्र
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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