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भाँति निर्मल और भूमि रमणीय होती है। इस भूमि पर दस प्रकार के कल्पवृक्ष उत्पन्न होते हैं। ये कल्पवृक्ष बिना परिश्रम के युगलियों को उनकी प्रयोजनीय वस्तुएं देते हैं। (श्लोक २२६-२३२) ____ मद्यांग नामक कल्प-वृक्ष उन्हें मदिरा देता है, भृगाक पात्रादि देता है, तुर्यांग विविध राग-रागिनी युक्त वाद्ययन्त्र देते हैं, दीप शिखांक और ज्योतिष्कांग अदभुत आलोक देते हैं । चित्रांग नानाविध फूल और माल्य देते हैं, चित्ररस खाद्य देते हैं, मण्यांग अलंकारादि देते हैं, गेहाकार गृहरूप निवास स्थान देते हैं और अनग्न दिव्य-वस्त्र देते हैं । इन कल्पवृक्षों के अतिरिक्त अन्य कल्पवृक्ष भी होते हैं जो मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। वहाँ सब प्रकार की इच्छित वस्तुएं मिलने के कारण धन श्रेष्ठी युगल जीवन में स्वर्ग-सा विषयसुख भोग करने लगे।
(श्लोक २३३-२३७) युगल आयु पूर्ण कर धन श्रेष्ठी ने पूर्वजन्म के सुपात्र दान के कारण सौधर्म देवलोक में जाकर देवता-रूप में जन्म-ग्रहण किया।
(श्लोक २३८) देवायु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर वे पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में गन्धिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत के ऊपर गान्धार देश के गन्धस्मृति नगर में विद्याधर शिरोमणि शतबल राजा की चन्द्रकान्ता नामक पत्नी के गर्भ से पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। महाविक्रमशाली होने के कारण उनका नाम महाबल रखा गया। वैभव के मध्य लालित-पालित रक्षकों द्वारा सुरक्षित महाबलकुमार वृक्ष की भाँति द्धित होने। क्रमशः चन्द्र की भाँति समस्त कला से पूर्ण होकर वे महाभाग्यशाली समस्त लोक के लिए आनन्ददायक बन गए। उचित समय पर माता-पिता ने साक्षात् विनयलक्ष्मी स्वरूप विनयवती के साथ उनका विवाह कर दिया। इन्होंने भी धीरे-धीरे कामदेव के तीक्षरण अस्त्र की भाँति कामनियों के वशीकरण रूप एवं रति के क्रीड़ा क्षेत्र के तुल्य यौवन को प्राप्त किया। उनके चरणों के पृष्ठ भाग कच्छप पृष्ठ की भाँति ऊँचे थे, पदतल समान थे। उनकी देह का मध्यभाग सिंह के मध्यभाग को तिरस्कृत करने वाला (अर्थात् क्षीण कटि) था। वक्ष देश था पर्वत शिलावत, दोनों स्कन्ध थे वृषभ स्कन्ध की भाँति सुन्दर और दोनों भुजाएँ शेष नाग