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२२८] ___'अतः तुम्हारी तृष्णा जो कि स्वर्ग के सुखों से भी शान्त नहीं हई। वह राज्यलक्ष्मी भोग कर कैसे शान्त होगी? इसीलिए हे वत्सगण, तुम जैसे विवेकियों को तो उचित अनिन्द्य आनन्द के प्रस्रवरण तुल्य और मोक्ष प्राप्ति के कारण रूप संयम साम्राज्य को ग्रहण करना चाहिए।'
(श्लोक ८४३-८४४) प्रभु के ऐसे वाक्यों को सुनकर उन ९८ पुत्रों के मन वैराग्य के रंग में रंजित हो गए और उन्होंने उसी समय उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। आश्चर्यजनक है इनका धैर्य, आश्चर्यजनक है इनका सत्त्व और वैराग्य, ऐसा विचार करते हुए दूतों ने चक्री के समीप जाकर सारी कथा निवेदन की। तब चक्री ने उनके राज्यों को उसी प्रकार ग्रहण कर लिया जिस प्रकार चन्द्रमा तारागण की ज्योति को ग्रहण करता है, सूर्य अग्नि के तेज को ग्रहण करता है, समुद्र नदी के जल को ग्रहण करता है।
(श्लोक ८४५-८४७) (चतुर्थ सर्ग समाप्त)
पंचम सर्ग एक समय भरतेश्वर जबकि सुखपूर्वक सभा में आसीन थे, सेनापति सुषेण ने पाकर उन्हें नमस्कार किया और बोले-'महाराज, यद्यपि प्राप दिग्विजय कर पाए हैं फिर भी आपका चक्र उसी प्रकार नगर में प्रवेश नहीं कर रहा है जिस प्रकार मदोन्मत्त हस्ती आलान स्तम्भ के निकट नहीं जाता।'
(श्लोक १-२) भरतेश्वर ने पूछा-'सेनापति, भरत के छह खण्डों में ऐसा कौन है जिसने मेरी आज्ञा स्वीकार नहीं की है ? (श्लोक ३)
तब मन्त्री बोले-'हे प्रभु, मैं जानता हूं आप क्षुद्र हिमालय पर्यन्त समस्त क्षेत्र को जय कर पाए हैं। अव आपके जय करने को रहा ही क्या है ? कारण, चक्की में डाला हा गेहूँ का दाना क्या साबूत बच सकता है ? फिर भी जब चक्र नगर में प्रवेश नहीं कर रहा है उससे सूचना मिलती है कि अभी भी कोई ऐसा उन्मत्त पुरुष रह गया है जिसे आपको जय करना है । वे हैं भगवान् ऋषभवेव के पुत्र, आपके छोटे भाई बाहुबली। वे महाबलशाली और बलवान