________________
[१९५
सूर्य-सा प्रकाशवान् मणिरत्न ग्रहण किया.। वह एक हजार यक्षों द्वारा अधिष्ठित था अर्थात् एक हजार देव उसकी रक्षा करते थे। उस रत्न को मस्तक की चूड़ा पर बांध लेने से पशु-पक्षी, मनुष्य
और देवताकृत उपसर्ग नहीं होते। इसके अतिरिक्त उस रत्न के प्रभाव से सूर्य द्वारा जिस प्रकार अन्धकार दूर हो जाता है उसी प्रकार समस्त दु:ख नष्ट हो जाते हैं और शस्त्र के ग्राघात की भांति समस्त रोग भी दूर भाग जाते हैं। सुवर्ण कलश पर जिस प्रकार नुवर्ण ढक्कन लगाया जाता है उसी प्रकार उन रिपुनाशक राजा ने उस रत्न को हस्ती के दाहिने कुम्भ स्थल पर रखा । पोछे चलमान सेना सहित चक्र का अनुसरण करते हुए सिंह की भांति उस गुफा में प्रवेश करते हुए नरकेशरी ने चार अंगुल प्रमाण अन्य काकिणी रत्न भी ग्रहण किया। वह रत्न सूर्य, चन्द्र और अग्नि-सा कान्ति सम्पन्न था। उसका आकार अधिकरणो-सा था। एक हजार यक्ष उसके रक्षक थे। पाठ सुवर्ण मुद्राओं-सा उसका प्रमाण था। उसमें छह पत्र थे, बाहर कोरण थे और नीचे का भाग समतल था । वह मान, उन्मान और प्रमाण युक्त था। उसकी पाठ कणिकाएं थीं। बारह योजन पर्यन्त अन्धकार दूर करने में वह समर्थ था। गुफा के मध्य दोनों ओर एक-एक योजन के बाद गो-मूत्र के आकार में अर्थात् एक दाहिनी ओर, दूसरा बायीं ओर, इस प्रकार काकिरणी रत्न के द्वारा मण्डल तैयार करते-करते चक्रवती अग्रसर हुए। प्रत्येक मण्डल पांच नौ धनुष विस्तृत और एक योजन तक प्रकाश करने में समर्थ था। इन मण्डलों की संख्या ४९ थी। जब तक कल्याणकारी चक्रवर्ती पृथ्वी पर वर्तमान रहते हैं तब तक गुफा का दरवाजा खुला रहता
(श्लोक ३००-३१०) चक्र के पीछे गमन करते हुए चक्रवर्ती और चक्रवर्ती के पीछे गमन करती हुई चक्रवर्ती की सेना मण्डल के आलोक में उस गुफा में अग्रसर होती गई। चक्रवर्ती की चलमान सेना उस गुफा में उसी प्रकार शोभा पाने लगी जिस प्रकार असुरादि सैन्य से रत्नप्रभा का मध्य भाग शोभित होता है। मन्थन दण्ड से मन्थन पात्र में जिस प्रकार शब्द होता है। उसी प्रकार चलमान चक्र और सेना से वह गुजित होने लगी। जहां कोई नहीं चलता ऐसा गुफा पथ रथ चक्रों से लीकवाला और घोड़ों के खुरों से उखड़ा कंकरों के नगर पथों