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________________ १३४] जाल में बद्ध था उसी समय सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दितोष, तुषिताश्व, ग्रव्यावाध, मरुत और रिष्ट इन नौ प्रकार के ब्रह्म नायक, पंचम देवलोक के अन्तेवासी देवगरण भगवान् के निकट आए और द्वितीय मुकुट की भांति मस्तक पर कमल कलि सदृश अञ्जलि धारण कर निवेदन किया- 'इन्द्र के मुकुटमरिण के किरण जाल से जिनके चरण धुले हुए हैं और भरत क्षेत्र के विनष्ट मोक्ष मार्ग को प्रदर्शित करने के लिए जो दीपतुल्य हैं ऐसे हे प्रभु, जिस प्रकार आपने लोक व्यवहार प्रचलित किया है उसी प्रकार आपका कर्त्तव्य स्मरण कर धर्म तीर्थ प्रवत्तित कीजिए।' ऐसा कहकर देवगरण ब्रह्मलोक के अपने-अपने स्थान को लौट गए एवं दीक्षा ग्रहण को उत्सुक प्रभु भी नन्दन वन के राज प्रासाद की ओर प्रत्यावर्त्तन (श्लोक १०३४ - १०४० ) कर गए । (द्वितीय सर्ग समाप्त) तृतीय सर्ग तभी प्रभु ने सामन्तादि राजपुरुष और भरत बाहुबली आदि पुत्रों को बुलवाया और भरत को कहा- 'तात! अब तुम राज्य का संरक्षण करो। मैं तो अब सयम रूप साम्राज्य को ग्रहण करूँगा ।' (श्लोक १-२ ) स्वामी की बात सुनकर भरत नीचा माथा किए कुछ क्षण चुपचाप खड़े रहे । फिर करबद्ध होकर गद्गद् कण्ठ से बोले'पिताजी, श्रापके चरण-कमलों में बैठकर मुझे जो ग्रानन्द मिलता है वह आनन्द सिंहासन पर बैठने से नहीं मिलेगा । आपके चरणकमलों की छाया में मैं जिस प्रानन्द की अनुभूति करता हूँ उस श्रानन्द की अनुभूति राज छत्र की छाया में नहीं हो सकती । यदि मुझे आपका वियोग-दुःख सहन करना पड़ा तो ऐसी राज्यलक्ष्मी से क्या लाभ? आपकी सेवा के सुख रूपी क्षीर समुद्र के सम्मुख राज्य सुख तो एक बिन्दु जल की भांति है । ( श्लोक ३-७ ) प्रभु बोले- 'मैं राज्य का परित्याग कर रहा हूं । ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर यदि राजा नहीं रहा तो सर्वत्र मत्स्य प्रवृत्ति फैल
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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