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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
___ चक्षुःआदिक यानी चक्षुः, अचक्षु :, अवधि, और और केवल इन चार पदों का षष्ठी विभक्तिद्वारा भेदरूपसे कथन करना तो दर्शनावरण कर्मके संबंधसे किया गया है, अतः चक्षुका दर्शनावरण, अचक्षुका दर्शनावरण,अवधिका दर्शनावरण और केवलका दर्शनावरण यों भेदनिर्देश है । परिश्रम, भोजन, आदि करके उपजे मदखेद और ग्लानिका निवारण करते हुये विनोद के लिये सो जाना निद्रा है। उस निद्राको अधिक रूपसे ऊपर ऊपर वृत्ति होना निदानिद्रा है । जो नींद आत्मा या आत्मप्रदेशोंको चलायमान कर देती है इस कारण यह अच्छी नींद प्रचला कही जाती है । यह शोक, श्रम, मद, आदिसे उत्पन्न होती है। प्रीतिका कारण है। बैठे हुये या चलते हुये मनुष्य, पशु, पक्षियों के नेत्र, शरीर के मन्थर या सालस विकारों करके सूचित कर दी जाती है । वह प्रचला ही यदि फिर फिर करके आवृत्तिको प्राप्त हुई वृत्ति को धार लेती है बारबार आती है वह प्रचलाप्रचला है । स्वप्नमें जिस प्रकाण्ड निद्रा करके बलविशेष प्रकट हो जाता है वह स्त्यानगृद्धि है "स्त्यै स्वप्नसंघातयोः'धातुसे स्त्यान शब्द बनालिया जाता है । धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं अतः स्त्यै धातुका अर्थ यहां स्वप्न, समझलिया जाय, गृद्धिका अर्थ दीप्ति है । “गृधु अभिकांक्षायां,, धातुका दीप्ति अर्थ करलियाजाय, स्त्यान यानी स्वप्न में गृध्यंति यानी उद्दीप्त हो जाता हैं जिस स्त्यान गृद्धिकर्मके उदयसे यह जीव बेहोशीम अनेक प्रकार के भयावह रौद्र कर्म कर डालता है। यह इस स्त्यानगद्धिका परिभाषिक अर्थ हुआ विशेष यों है कि यहाँ वहाँ का स्मरण कर अंटसंट पदार्थों का ज्ञान जो स्वप्न में होता रहता है वह निद्रासे मिली हुई स्वप्नोंकी भ्रान्त अवस्था न्यारी है। सत्यस्वप्न भी वस्तुतः भ्रमज्ञान हो है, उनका फल सत्य होजानेसे स्वप्नोंमें सत्यपना उपचरित है, स्वप्न अवस्थामें निद्रा, कुज्ञान, ज्ञानाभाव स्मरणाभास, प्रत्यक्षाभास इनको मिश्रण परिणति सुषुप्ति अवस्था न्यारी है।
नानाधिकरणामावाद्वीप्सानुपपत्तिरिति चेन्न, कालादिभेदेन तभ्देदसिद्धिः, पटुर्भवान पटुरासीत् पटुतर एव स इति । तथा देशभेदादपि मथुरायां दृष्टस्य पुनः पाटलिपुत्रे दृश्यमानस्य तत्त्ववत् । तत्रैकस्मिन्नप्यात्मनि कालदेशभेदात् नानात्वभाजिवीप्सा युक्ता निद्रानिद्रा, . प्रचलाप्रचलेति । आभीक्ष्ये वा द्वित्वप्रसिद्धिः यथा गेंह गेहमनुप्रवेशमास्त इति ।
---- यहाँ कोई तर्की शंका उठाता है कि अनेक अधिकरणों को विषय करनेवाली वीप्सा हुआ करती है जैसे कि वृक्षं वृक्षं प्रति सिंचति" "गृहं गृहं प्रति विद्योतते विद्युत्"वृक्षवृक्षको सींच रहा है, प्रत्येक घर के ऊपर विजली चमक रही है। यहाँ नाना अधिकरणोंके होनेपर वीप्सा होसकी है किन्तु निद्रानिद्रा, या प्रचलाप्रचला तो एक ही आत्मामें वर्त रही हैं। अतः