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अष्टमोध्यायः
उदरो में जाकर वैसी वैसी विशेष सामर्थ्यो का धारना अनुमित हो जाता है । अथवा चाक्षुष प्रत्यक्ष, रासन प्रत्यक्ष, आदि कार्यविशेषोंसे अतीन्द्रिय इन्द्रियो या उन बाह्यनिवृत्ति स्वरूप इन्द्रियोंकी रूपग्रहणशक्ति रसग्रहणशक्ति आदि विशेषोंका अनुमान करलिया जाता है, उसी प्रकार अज्ञान, मति अज्ञान, दर्शनमोहन, अनुकूलवेदन, प्रतिकूलवेदन, भव धारण, शरीरादिनिर्माण, उच्चाचरण, विघ्न पड़ जाना, आदि कार्य विशेषों करके सम्पूर्ण मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृतियोंका अनुमान कर लिया जाता हैं । परिदृष्ट कारणों का व्यभिचार देखने से अतीन्द्रिय कर्मों की सिद्धि हो जाती है । उस ही बात को ग्रन्थकार वार्तिक द्वारा कह रहे हैं।
कर्मप्रकृतयस्तत्र स्युर्ज्ञानावरणादयः । ताद्दक्काय विशेषानुमेयाः करणशक्तिवत् ॥१॥
उन चार प्रकारके बंधो में ज्ञनावरण आदिक मूल प्रकृतियां और कर्मों की मति ज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण आदिक उत्तर प्रकृतियां तो तिस तिस प्रकार ज्ञानको नहीं होने देना, मतिज्ञन को नहीं उपजने देना, चाक्षुषदर्शन को रोकलेना आदि देखे जा रहे कार्य विशेषों करके अनुमान करलेने योग्य हैं । जैसे कि इन्द्रियोंकी रूप को ग्रहण कर सकना आदि शक्तियों का अनुमान करलिया जाता है अथवा " देवदत्त; कुठारे छिनति काष्ठं ' वेगयुक्त होकर उठना, गिरना व्यापारवाले कुठार करके काठका छेदन हो जाना दीखने से कुठार की छेदकत्व शक्ती का अनुमान करलिया जाता है । अवधिज्ञानी, मनपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी को कर्मोंका प्रत्यक्ष हो जाता है । किन्तु मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी जीव उन कर्मों की अनुमान प्रमाण से सिद्धि कर डालते है ।
कश्विदाह - पुद्गलद्रव्यस्यैकस्यावर रंग सुखदुःखादिनिमित्तत्वानुपपत्तिविरोधात् इति । स विनिवार्यते न वा तत्स्वाभाव्याद्वन् हेर्दाहपाकप्रतापप्रकाशसामर्थ्यवत् । अनैकांतित्वाच्च द्रव्यस्य नैकत्वादिरूपेणानैवान्तिकत्वं यतो विरोध : ।
यहाँ कोई पण्डित आक्षेप करता हुआ वह रहा है कि सामान्य रूप से एक ही पुद्गल द्रव्यको आवरण कर देना, मोह करना, सुख दुःख उपजावना आदि अनेक कार्योंमें निमित्तपना नहीं बन सकता है, क्योंकि एक कारणद्वारा अनेक कार्यों के हो जाने का विरोध है । इस प्रकार जो कहरहा है, ग्रन्थकार करके वह पण्डित विशेषरूपतया निवारण किया जाता है कि हम जैनों के ऊपर यह दोष नहीं आता है, क्योंकि उन कर्यों में अन्तरंग बहिरंग