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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
मार्गको उपमेय बनाया गया है । अब ग्रन्थकार दोनोंमें घटित हो जानें योग्य विशेषणोंको कह रहे हैं कि मोक्षमार्ग कैसा है ? जो कि सज्जन पुरुषोंकी मण्डलीको आश्रय यानी अवलम्ब (सहारा) हो रहा है । तापसंतप्त जनसमुदाय भी चन्द्रमाकी ज्योतिका आश्रय पकडता है । तथा रत्नत्रयस्वरूप श्रेष्ठमार्ग उस मोक्ष स्वरूप अमृतधाराको वर्षानेकी एकाग्रता में समर्थ हो रहा है । और साथही चन्द्रज्योति भी कल्याण करनेवाली अमृतकीधाराको वर्षानेके अवधान में सामर्थ्यशाली है । रत्नत्रयने मिथ्या श्रद्धान, कुज्ञान और अचारित्र स्वरूप गाढान्धकारके विस्तारको नष्ट कर दिया है । इधर सूर्य की ज्योति द्वारा अन्धकारपंक्ति नष्ट कर दी जाती है । रत्नत्रयसे समीचीन उन्नत हो रही मोक्षगति प्राप्त होती है । साथही ज्योतिष्मान् सूर्यकी गति भी अच्छी उन्नत हो रही है । यहांसे आठ सौ योजन ऊंचा सूर्यमण्डल, और आठ सौ अस्सी योजन ऊंचा आकाश में चन्द्रमण्डल गमन ( तिरछाभ्रमण ) कर रहा है । रत्नत्रय तो सातिशय, अलौकिक आत्मीय उत्कट प्रतापसे सहित हो रहा है । चमकता हुआ ज्योतिर्मण्डल भी प्रगाढप्रतापसे सहित हो रहा है । रत्नत्रयमें प्रमाणसे या इकईस प्रकारके संख्यामान द्वारा अवगाह किये जाकर विषयतासम्बन्धेन अनन्तपदार्थोंने स्थिति कर रक्खी है । प्रकृष्ट ज्योतिने भी अपने नियत परिमाणसे अनन्त आकाशमें अवगाह कर लिया है । सम्पूर्ण मलों के प्रज्वालने में अच्छा समर्थ जैसा ज्योतिष्मान् पदार्थ है । शारीरिक मलोंका प्रक्षालन हो जाय यानी पसेव द्वारा दोष वह जाय इसके लिये कतिपय मनुष्य, पशु, पक्षी, धूप में बैठकर सूर्यातपसे स्नान करते हैं । चन्द्रमा तो औषधीश माने गये हैं । उसी प्रकार श्रेष्ठमार्ग भी सम्पूर्ण पापोंको प्रकर्षरूपेण जलाने में बहुत बढिया समर्थ है ।
इस प्रकार ग्रन्थकार श्री उमास्वामी महाराजने आदि सूत्र के प्रमेयकोही अन्तिम मंगलाचरण कर “ आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भाषितं बुधैस्तज्जिनेन्द्र गुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये इस नीति अनुसार ग्रन्थको निर्विघ्न समाप्त किया है ।
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इति दशमाध्यायस्य द्वितीयमान्हिकम्
यहां तक दशवें अध्यायका
होकर समाप्त हो चुका है ।
प्रकरणोंका समुदायस्वरूप दूसरा आन्हिक पूर्ण
इति श्री विद्यानन्द आचार्य विरचिते तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकालंकारे दशमोऽध्यायः समाप्तः ।। १० ।।