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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
मिदमाह ;
उक्तो धर्मास्तिकायोऽत्र गत्युपग्रहकारणं । तस्याभावान्न लोकाग्रात्परतो गतिरात्मनः ॥ १ ॥ एवं निःशेषमिथ्याभिमानो मुक्तौ निवर्तते, युक्त्यागमबलात्तस्याः स्वरूपं प्रति निर्णयात् ॥ २ ॥
इस
तत्त्वार्थाधिग्म " ग्रन्थ में पांचवें अध्याय धर्मास्तिकायको कहा जा चुका है । गति परिणत जीव पुद्गलके गमन उपकारका सहकारी करण धर्म द्रव्य है । उसका अभाव हो जानेसे मुक्तात्माकी लोकाग्रसे परली ओर ऊपरको गति नहीं हो पाती है । उपरिम तनुवातके नौ लाखवें भाग क्षेत्र या पन्द्रहसौवें भाग अथवा इनके मध्यवर्त्ती भागोंमें सिद्ध विराज रहे हैं जो कि सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणोंसे सहित हैं, कर्मरहित हैं । सादि नित्य हैं, कृतकृत्य हैं, लोकालोक ज्ञाता है, दृष्टा हैं, चरम शरीरसे कुछ न्यून आकृतिकों लिये हुये हैं, रूपादिरहित हैं । गति आदि नौ मार्गणाओंसे ते हैं । यों अनेक गुण या स्वभावोंसे सिद्धों का निरूपण किया जाता है। बौद्ध, नैयायिक आदि दार्शनिकोंने जैसा मुक्त आत्माका स्वरूप माना है वह प्रामाणिक नहीं है । उनका साभिमान मन्तव्य मिथ्या है । इस प्रकार मुक्त अवस्था में अन्य दार्शनिकों के सम्पूर्ण असत्य मन्तव्योंकी निवृत्ति हो जाती है । क्योंकि युक्ति और आगमकी सामर्थ्य से उस मोक्षके स्वरूपके प्रति निर्णय कर दिया गया है । सत्यमार्ग में मिथ्या अभिमानोंकी गति नहीं हो पाती है | अतः उक्त निरूपण अनुसार मोक्ष सम्बन्धी सम्पूर्ण विवादोंकी निवृत्ति कर दी गयी समझो ।
अथ किमेते मुक्ताः समानाः सर्वे किं वा भेदेनापि निर्देश्या इत्याशंकाया
इसके अनन्तर कोई विनीत जिज्ञासु प्रश्न करता है कि ये मुक्त जीव सबके सब क्या समान हैं ? अथवा क्या भिन्न भिन्न स्वरूपसे भी कथन करने योग्य हैं ? जिसके कि अवलम्बपर उनको जानकर परमात्माओंका ध्यान लगाया जा सके, बताओ, इस प्रकार समुचित आशंका उपस्थित हो जानेपर सूत्रकार महाराज इस पावन अन्तिम सूत्रको स्पष्टतया कह रहे हैं ।