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दशमोऽध्यायः
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पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्बंधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥ ६ ॥
मुक्त जीव मोक्ष हो जाने के अव्यवहित उत्तर कालमें ऊपरको जाता है ॥ ( प्रतिज्ञा ) पहिले संस्कृत कर दिये गये । ऊर्ध्वगमनका प्रयोग होनेसे ( पहिला हेतु ) लगे हुये कर्म, नोकर्म, परिग्रहोंका संगछूट जानेंसे ( दूसरा हेतु) बन्धका छेद हो जाने से ( तीसरा हेतु ) । तिस प्रकार ऊर्ध्वगमन करना रूप स्वाभाविक परिणति होनेसे ( चौथा हेतु ) । इन चार हेतुओंसे पूर्व सूत्रोक्त प्रतिज्ञाको साध लिया जाय ।
एतच्च हेतुचतुष्टयं कथं गमकमित्याह;
ये चारों हेतु उक्त प्रतिज्ञाके किस प्रकार ज्ञप्ति करानेवाले हो सकते हैं ? सम्भव है, इनकी साध्य के साथ व्याप्ति नहीं घटित होय । ऐसी निर्णेतुं इच्छा प्रवर्तनेपर ग्रन्थकार अगिली वार्तिकको कह रहे हैं ।
पूर्वेत्याद्येन वाक्येन प्रोक्तं हेतुचतुष्टयं, साध्येन व्याप्तमुन्नेयमन्यथानुपपत्तिः ॥ १ ॥
पूर्व प्रयोगात् " इत्यादि सूत्रवाक्य करके पूर्वप्रतिज्ञाके साधक चारों हेतु बहुत बढिया कहे जा चुके हैं जो कि हेतुकी प्राण हो रही अन्यथानुपपत्ति ( अविना"भाव ) से साध्य करके व्याप्त चारों हेतु हैं । यह बात विना कहेही ज्ञानलक्षण द्वारा समझ लेने योग्य है । अर्थात् इस सूत्र में कहे गये चारों हेतु अपने ऊर्ध्वगमन साध्य साथ व्याप्तिको रखते हैं । अतः निर्दोष हेतु अपने साध्यको अवश्य सिद्ध कर डालेंगे । अत्रैव दृष्टान्त प्रतिपादनार्थ माह;
सही अर्थ निर्णय में अन्वय व्याप्तिको धार रहे दृष्टान्तोंकी प्रतिपत्ति करा - नेके लिये सूत्रकार अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं । आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपाला बुवदरंडबीजवदग्निशिखावच्च ॥ ७ ॥
- वेसहित घुमा दिये गये कुम्हारके चाक समान १ लगे हुये लेपको हटा चुकी तुम्बी समान २ अण्डीके बीजसमान २ और अग्नीकी शिखाके समान ४ पूर्वोक्त चारों अनुमानों के ये चारों अन्वय दृष्टान्त हैं । अर्थात् " मुक्तो जीव ऊर्ध्वं गच्छति ( प्रतिज्ञा ) पूर्वप्रयोगात् (हेतु) आविद्धकुलालचक्रवत् ( अन्वयदृष्टान्त) मुक्त जीव