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तत्त्वार्थ श्लोकवातिकालंकारे
समान मोक्षमें क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि भावोंका नाश नहीं हो पाता है । जो कि सूत्रकारने इस सूत्र से कह दिया है । इन क्षायिक सम्यग्दर्शन आदि भावों के साथ मोक्षका सभी प्रकारोंसे विरोधका अभाव है । अर्थात् औपशमिक, क्षायोपशमिक भावोके साथ जैसे मोक्षका विरोध है । वैसा क्षायिक भावोंके साथ विरोध नहीं है । जैनसिद्धान्त अनुसार मोक्ष अभावस्वरूप नहीं है । किन्तु विभावपरिणतिका क्षय होकर गुणों का स्वाभाविक परिणमन होते रहना मोक्ष है । मोक्षमें क्या सर्वत्र सर्वदाही द्रव्योंमें अनेक नहीं कहने योग्य अनिर्वचनीय गुण पाये जाते हैं । फिर भी शिष्यों को प्रतिपत्ति कराने के लिये कतिपय शद्वों द्वारा निरूपे जा रहे व्यपदेश सहित भावों करके द्रव्योंकी प्रतिपत्ति कराई जाती है । मोक्षमें परिपूर्ण स्वानुभव है, विश्वपदार्थों का ज्ञान है । सम्पूर्ण सत्तालोचन है, स्वनिष्ठा है, तथा सिद्धत्व या कृतकृत्यपना भरपूर हो रहा है । इस कारण स्वयं व्यपदेश यानी शद्वप्रयोगसहित हो रहे सम्यग्दर्शन आदि करके ति प्रकार मोक्षका निरूपण हो रहा समझो । यदि यहां कोई यों पूछें, कि क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायिकज्ञान आदिभावोंसे सिद्धत्व भाव में क्या विशिष्टता है, जो केवलज्ञान आदिको प्राप्त हो चुका है। वह सिद्ध भी हो चुका है समझो, फिर सिद्धत्व भावका पृथक् निरूपण क्यों किया गया है ? इसका समाधान ग्रन्थकार पहिलेसेही करें देते हैं कि केवल आदिसे सिद्धत्वभाव विलक्षण है । क्योंकि उन केवलज्ञान आदिके होते ते भी किसी भी कर्मके उदयको निमित्त पाकर हुये असिद्धपनकी कहीं कहीं ज्ञप्ति हो रहीं है । एक सौ अडतालीस कर्मों से चाहे किसी भी कर्मका उदय बना रहने से जीव सिद्ध नहीं हो पाता है । चौथे से लेकर सातवें तक किसी भी गुणस्थानमें क्षायिक सम्यक्त्व उपजकर ऊपर गुणस्थानोंमें भी पाया जाता है । नाना क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके चौथे गुणस्थान में एकसौ इकतालीस प्रकृतियोंकी सत्ता है । यथायोग्य अनेक प्रकृतियोंका उदय है । तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों तेरहवें गुणस्थानों में उपज जाते हैं । वहां पिचासी प्रकृतियोंका सद्भाव है, चौदहवें गुणस्थानके उपान्त्यसमय और अन्त्यसमयमें बहत्तर और तेरह कर्मोंकी सत्ता है । अभी तक सिद्धत्व भाव नहीं हो पाया है | अतः ग्रन्थकार लिख रहे हैं कि वह सिद्धत्वभाव उन केवल सम्यक्त्व आदि परिणतियोंसे विभिन्नही है । कारण कि कहीं कहीं तेरहवें या चौदहवें गुणस्थानोंमें तीन अन्तर्मुहूर्तोंसे प्रारम्भ कर करोड़ों वर्षों तक केवलज्ञान आदि होते हुये भी असिद्धत्व भावकी प्राप्ति हो रही है ।