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दशमोऽध्यायः
गुणस्थानोंमें उपशमसम्यक्त्वके पीछे वेदकसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यग्दर्शन तथा चारित्र संबन्धी परिणाम विशेषोंसे कर्मोका क्षय कर दिया जाता है । जो कि उपयोग द्वारा लगाये गये विशुद्ध परिणाम क्रम क्रमसे अशुभ और शुभ कर्म प्रकृतियोंकी क्षपणा करनेमें समर्थ कारण हो रहे हैं । यहां तक इस सूत्रके अर्थका स्पष्टीकरण कर दिया गया हैं।
अथ केवलज्ञानोत्पत्ति प्रवितक्यैदानी पूर्वोदितनिर्जरानिदानानां सन्निधाने मोक्षकारणं मोक्षस्वरूपं च व्याचष्टे ।
अब इसके अनन्तर केवलज्ञानकी उत्पत्तिकी बढिया वितर्कणा कर इस समय पहिले कह दिये गये । निर्जराके कारणोंकी सन्निकटता हो जानेपर सूत्रकार महाराज मोक्षके कारण और मोक्ष के स्वरूपका अग्रिम सूत्र द्वारा व्याख्यान करते है । मुद्रित पुस्तकमें इस सूत्रका अवतरण यों हैं कि-कस्माद्धेतोर्मोक्षः किं लक्षणश्चेत्यत्रोच्यते-किस कारणसे मोक्ष होती है ? और उस मोक्षका लक्षण क्या है ? यहां ऐसी जिज्ञासा उत्यित होनेपर सूत्रकार आचार्य करके अग्रिम सूत्र कहा जाता है।
बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥ २॥
कर्मबन्धके हेतु हो रहे मिथ्यादर्शनादिकों या आस्रवका अभाव हो जाना स्वरूप संवर और एकदेश कर्मक्षय करनेवाली निर्जरा इव दो आत्मीय परिणामों करके सम्पूर्ण कर्मोंका अनन्तानन्त कालके लिये प्रकर्षरूपेण छूट जाना मोक्ष है ।
बधस्य हेतवो मिथ्यादर्शना विरतिप्रमादकषाययोगास्तेषामभावो नतनकर्मणामप्रवेशो बन्धहेत्वभावः। पूर्वोपार्जितकर्मणामेकदेशक्षयो निर्जरा । बन्धहेत्वभावश्च निर्जरा च बन्धहेत्वभावनिर्जरे । तभ्यां बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां द्वाभ्यां कारणाभ्यां कृत्वा कृत्स्नानां विश्वेषां कर्मणां विशिष्टमन्यजनासाधारणं प्रकृष्टमेकवेशकर्मक्षयनामनिर्जरायां तु उत्कृष्टमात्यन्तिक मोक्षणं मोक्षः । कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष उच्यते । एतेन पूर्वपदेन मोक्षस्य हेतुरुक्तो, द्वितीयपदेन मोक्षस्वरूपं प्रतिपादितमिति वेदितव्यम् ।
बन्धके कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योग हैं। उनका अभाव हो जाना अर्थात् नवीन कर्मोंका प्रवेश नहीं होना ही बन्धहेत्वभाव है। पहिले समयोंमें उपाजित किये गये संचित कर्मोंका एकदेशरूपेण क्षय कर देना निर्जरा है।