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अष्टमोऽध्यायः
तद्विपर्ययतो मोक्ष हेतवः पंचसूत्रित: । सामर्थ्यादत्र नातोस्ति विरोधः सर्वथा गिराम् ॥३॥
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इस सूत्र में बंध के कारण जब पांच कहे गये हैं तो विना कहे ही सूत्र सामर्थ्य करके उस बंध मार्गका विपर्यय होनेसे मोक्ष कारण भी आदि सूत्र द्वारा पांच ही समझ लिये जय, अतः स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार सूत्रकार की पूर्वापर वाणियोंका सभी प्रकारोंसे कोई विरोध नहीं है ।
निर्णीतप्रायं चैतन्न पुनरुच्यते ॥
बंध के कारण पांच हैं तो मोक्ष के कारण भी सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये पांच समझ लिये जांय, जो कि रत्नत्रय में ही गतार्थ हैं। अथवा मोक्षके मार्ग तीन हैं तो बंधके कारण भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र ये तीन ही समझ लिये जांय इन तीनोंके ही परिकर पांच हैं । वचनभंगियों से जैनोंका कोई विरोध नहीं है, इस सिद्धांत का हम पहिले प्रकरणोंमे ही बहुत निर्णय कर चुके हैं । आद्यसूत्र का व्याख्यान करते हुये " बंधप्रत्ययपांचध्यसूत्रं न च विरुध्यते " आदिक कतिपय आगे पीछे की वार्त्तिकों में बहुत अच्छा विवेचन किया जा चुका है, अतः इस बंध के तीन कारण या मोक्षके पांच कारण संबन्धी प्रकरणों को यहां कहा जाता है । विशेष जिज्ञासु पण्डित उन पूर्व प्रकरणोंको पढ लेवें ॥
फिर दुबारा नहीं
कोयं बंध इत्याह
बंध के कारणों को समझ लिया है अब बताओ कि बंध क्या पदार्थ है ? इस प्रकार विनीत शिष्यकी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं ।
बंध का लक्षण
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंधः ॥२॥
पूर्वबद्ध कर्मोंसे सकषाय हो जाने के कारण यह जीव कर्म के योग्य पुगद्लोंको ग्रहण करता है वह आत्मा और कर्मका एकरस होकर बंध जाना बंध है ।