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तार्थ कर लिया जाय " तच्चिन्त्यं
अष्टमोऽध्यायः
कारण किस युक्तिसे समझ अग्रिम वार्तिक को कहते हैं ।
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कुतः पुनमथ्यादर्शनादयः पंचबंध हेतव इत्याह
यहाँ कोई तार्किक पण्डित प्रश्न करता है कि मिथ्यादर्शन आदि पांचोंको बंधका लिया जाय ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार
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स्युर्वहेतवः पुंसः स्वमिथ्यादर्शनादयः । तस्य तद्भावभावित्वादन्यथा तदसिद्धितः ||२||
जीवके अपने मिथ्यादर्शन, अविरति आदि पांच (पक्ष) बंध के कारण हो सकते हैं ( साध्यदल) उस बंध का उन मिथ्यादर्शन आदि के सद्भाव होनेपर हो जाना स्वरूप अन्वय होनेसे (हेतु ) अन्य प्रकारोंसे उस बंध के होने की असिद्धि है (व्यतिरेकव्याप्ति ) इस अनुमान द्वारा सूत्रोक्त बंध कारण सिद्धांत को युक्तिसे साध दिया गया है ।
पुंसो बंधहेतव इति वचनात् प्रधानस्य क्षणिक चित्तस्य संतानस्य च व्यवच्छेदः स्वमिथ्यादर्शनादय इति निर्देशात् प्रधानपरिणामास्ते पुंसोबंध हेतव इति व्युदस्तं, कृतनाशाकृतभ्यागमप्रसंगात् बंधस्य मिथ्यादर्शनाद्यन्वयव्यतिरेकानुविधाना सध्देतुकत्व सिद्धिः ।
उक्त वार्तिक में पुरुषके कर्मोंका बंध होजानेके मिथ्यादर्शन आदि कारण हैं । यों कथन कर देनेसे प्रधानके अथवा क्षणिक चित्तके या सन्तानके बंध होने का व्यवच्छेद हो जाता है । भावार्थ कपिलसिद्धान्त अनुसार प्रकृतिके हीं वंध होना माना गया है वे आत्माको शुद्ध कमलपत्रसमान निर्लेप स्वीकार करते हैं । जैसे जलसे कमल का पत्ता विमुक्त रहता है । वस्तुतः विचारा जाय तो पत्ते के ऊपर बहुत बारीक रोमाबली हैं, जलके मोटे करण उस सूक्ष्म रोमावलि पर टिके रहते हैं। पत्ते के ही रोम है अतः पत्तेके अवपरोंसे जल संयुक्त है ही न्यारी जातिवाले पदार्थों का संयोग भी भिन्न प्रकारका है । बौद्धों के यहां क्षणिक चित्त था कल्पित संतानके ही बंध होना इष्ट किया गया है, ऐसी दशामें आत्माकी परतन्त्रता नहीं सुघटित होती है । जो बंधता है वही स्वकीय स्वाभाविक पुरुषार्थीद्वारा मोक्षलाभ करता है, अतः