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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से अधिक देर तक ध्यान लगा देने से इन्द्रियों के उपघात होजाने का प्रसंग आजावेगा,यानी मस्तक या हृदय फट जायगा, ध्याता आंखो से अन्धा, कानों से बधिर हो जायगा। यहां कोई दूसरे बाह्य समाधि का ढोंग रखनेवाले कहते है कि प्राण अपान - वायु की क्रिया का ग्रहण करना यानी देर तक रोके रहना ध्यान है। आचार्य कहते हैं कि यह हठयोग का आग्रह भी ठीक नहीं है, यो श्वासोच्छास रोकने से तो शरीर के पतन (मत्यु) होजने का प्रसग बन बैठेगा।
"श्री गोम्मटसार मे लिखा है" "विसवेयरणरक्तक्षय,भयसत्थग्गहरणसंकिलेसेहि,उस्सासाहाराणं गिरोहदो छिज्जदे आऊ"। प्राण, अपान वायु को रोकने करके उपजी हुई दुःख वेदना का प्रकर्ष होजाने से प्रागो शोघ्र ही मर जाता है।
__इस डर से यदि आप यों कहें कि, श्वास, उच्च्छास को सर्वया नहीं रोका जाता है, किन्तु मन्द मन्द रूपसे प्राण, अपान वायु का गमन, आगमनस्वरूप प्रचार होना ही उसका निग्रह है, तिस कारण उस निग्रह करके को गयो वेदना की प्रकर्षता नहीं होने से शरीर का पात नहीं होगा, मन्द मन्द सांस लेते रहने से बहुत दिनों तक योगो जीवित बना रहेगा, आचार्य कहते है कि यह तो ठीक नहीं। क्योंकि तिस प्रकार का मन्द मन्द चलते हुये प्राण अपान का निग्रह करना तो ध्यान को परिकर सामग्री है, स्वयं ध्यान नहीं है । दिगंबर मुनि भी ध्यान करते समय बहिरंग में प्राण, आन का मन्द मन्द प्रचार करते हैं, और अन्तरंग मे मनःद्वारा अनेक वितर्कणाये करते हुये यहाँ वहाँ की चिन्तनाओं को रोके हुये है । ध्यान के लक्षण सूत्र मे यद्यपि ध्यान को पूर्ण सामग्री का कण्ठोक्त प्रतिपादन नहीं किया गया है । तथापि विना कहे ही सामर्थ्य से सूचित होजाता है कि प्राण, अपान का मन्दगमन होना ध्यान का सहायक । पर्य (त्यं) क आसन, उत्कुटिका आसन, मयूर आसन आदि विशेष आसनों पर विजय प्राप्त करना या नेत्रों को न अधिक खोलना, न अधिक मींचना आदिक ये ध्यान का सहाय्यक परिकर है। उसी प्रकार मन्द प्राण, अपान प्रचार भो ध्यान का एक साधन है । साधन मुख्यरूपेण कार्य नहीं होजाता है, तिस कारण एकाग्रेचिन्तानिरोध ही ध्यान समझा जाय।
मात्राकालपरिगणनमिति चेन्न, ध्यानातिक्रमात् । तथा चित्तवेयनयात् । एतेन जपस्य ध्यानत्वं प्रतिषिद्धं ।