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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
रोक लेना ध्यान नहीं हो सकता है तथा एकाग्र का वाच्य प्रधान वास्तविक अर्थ करने से कल्पित अर्थ मे चिन्ताओं को रोके रहना ध्यान नहीं कहायेगा चिन्ताओं को रोककर एक ही ध्येय अर्थ में वास्तविक ज्ञान धारा को बहाते हुये निश्चल चिन्ता करना ध्यान है अतः कोरी अवास्तविक कल्पनाओं का आरोप करते रहना ध्यान नहीं समझा जा सकता है यों सूत्रोक्त पदों की सफलता को दिखाते हुये अतिव्याप्ति दोषों का निराकारण कर लिया जाय।
नन्वनेकान्तवादिनां सर्वस्यार्थस्यैकानेकरूपत्वात् कथमनेकरूपव्यवच्छेदेनैकाग्रध्यानं विधीयत इति कश्चित् सोप्यनालोचितवचनः, एकस्यार्थस्य पर्यायस्य वा प्रधानभावे ध्यानविषयवचनात् । तत्र द्रव्यस्य पर्यायान्तराणां च सत्त्वेपि गुणीभूतत्वाध्यानविषयत्वव्यवच्छेदात् । तत एव चैक शब्दस्य संख्याप्राधान्यवाचिनो व्याख्यानात् ।
यहां किसी शंकाकार का पूर्वपक्ष है कि सम्पूर्ण पदार्थों को अनेक धर्म स्वरूप कहने की टेव को रखनेवाले जैनों के यहां सभी पदार्थ जब एक स्वरूप और अनेक स्वरूप हैं तो ऐसा हो जाने से अनेक रूपों का व्यवच्छेद करके एक ही अर्थ में ध्यान किस प्रकार कर लिया जाय ? अनेकान्त को एकान्त जानना मिथ्या पड़ेगा। अतः कोरे एक अर्थ में ध्यान लग जाना स्याद्वादियों के यहां नहीं बन सकता है। यहां तक कोई एक पण्डित कह रहा है। अब आचार्य कहते हैं कि वह एकान्तवादी पण्डित भी विचारणा किये विना हो वचनों को कहनेवाला है, कारण कि एक पदार्थ अथवा उसकी एक पर्याय के प्रधान हो जानेपर ज्ञान समुदाय रूप ध्यान का विषय हो जाना कहा गया है उस ध्येय वस्तु में द्रव्य और ध्यानाक्रान्त पर्याय से अतिरिक्त अन्य पर्यायों का सद्भाव होनेपर भी वे सब गौणरूप हो रही हैं अतः ध्येय द्रव्य या पर्याय से अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण तदभिन्न द्रव्य और पर्यायों को ध्यान के विषय हो जाने का व्यवच्छेद ( निराकरण ) हो जाता है। तिसही कारण से तो हमने एकत्व संख्या या प्रधानपन को कथन करनेवाले एक शब्द का व्याख्यान किया है। अर्थात् अनेकान्तात्मक अर्थमे से ही एक प्रधानभूत द्रव्य या पर्यायस्वरूप धर्मविशेष में ही ज्ञान धारा उपजाकर अखंड ध्यान लगाया जाता है अर्थ तो द्रव्य, पर्याय, गुण, स्वभाव, अविभागप्रतिच्छेद इन सबका तादात्म्यस्वरूप हो रहा वस्तु है उसके एक ही किसी वास्तविक अंशमें ध्यान हो जाना बन बैठता है।