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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
रहे वेदनीय कर्मके उदय होनेपर बन बैठती हैं ? बताओ। ऐसी आशंका का प्रकरण प्राप्त हो जाने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिकको समाधानार्थ कह रहे हैं।
शेषाः स्युर्वेदनीये ते समग्रसहकारिणि । - इति सर्वत्र विज्ञेयमसाधारणकारणं ॥१॥
सम्पूर्ण सहकारी कारण रूप सामग्रीसे सहित हो रहे वेदनीय कर्म के होनेपर वे शेष परीषहे हो जाती हैं अर्थात् अकेला वेदनोय हो कार्यकारी नही है। “सामग्रोकारणं नत्वेकं " मोहनीय आदि कर्म द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव. संक्लेश परिणाम,निर्जलसंहनन,आकुलता कतिपय कर्मों की उदीरणा,इस यथोचित सामग्रो से परिषहे सताती है,जिनका विजय मुनिको यत्न व्दारा करना पड़ता है। अथवा संयमी मनि आत्मध्यान मे इतने निमग्न हो जाते हैं कि उनको परीषहोंका परिज्ञान ही नही होने पाता हैं,परीषहोंको परीषह समझकर सहना जघन्य पद है परीषहों को पदार्थपरिणत समझकर समता भावोंसे सहना मध्यम मार्ग है । शुद्ध आत्म स्वरूप मे सुस्थिर होकर सता रही परीषहों का संवेदन ही नहीं हो पाना उत्तम चर्या है। यहां प्रकरण मे उक्त ग्यारह परिषहोंका कारण वेदनीय कर्म कहा गया हैं । वह केवल असाधारण कारण हैं। साधारण कारण तो मोहनीय आदिक दुसरे भी सहकारी कारण है इसी असाधारण कारणवाली बातको प्रज्ञा, अज्ञान,अदर्शन आदिके कारण हो रहे ज्ञानावरण दर्शनमोहनोय आदिमे भी समझ लेना चाहिये अर्थात् प्रज्ञाका असाधाण कारण ज्ञानावरण कर्म है,अन्य मोहनीय आदि भी सहकारी कारण है प्रतिबन्धकों का अभाव रहते हुये कारणान्तरों की पूर्णतारूप असाधारण कारण से उत्तर क्षणमे कार्य हो ही जाता है।
ननु ज्ञानावरणे इत्यादि सूत्रेषु विभक्तिविशेषो निमित्तात् कर्मसंयोग इति चेन्न तद्योगाभावात् । न हि यथा चर्मरिण द्वीपिनं हन्तीत्यत्र कर्मसंयोगस्तथानास्ति ततोयं सन्निर्देशस्तदुपक्षलगत्वात् गोषु दुह्यमानासु गत इत्यादिवत् ।
____ यहां कोई वैयाकरण पण्डित शंका उठाता है कि 'ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने' दर्शन मोहान्तराययोंरदर्शनालाभौ' इत्यादि चार सूत्रोमे विशेष रूपसे सप्तमी विभक्ति तो निमित्तसे कर्मको संयोग हो जाने पर हुयी दिखती है अर्थात् ' निमित्तात् कर्मयोगे ' इस कारक प्रकरण के नियम अनुसार वेदनीये चारित्रमोहे, ज्ञानावरणे, दर्शन मोहान्तराययोः, यहां निमित्तोमें सप्तमी विभक्ति हुई ज्ञात होती है।आचार्य कहते हैं यह तो न कहना,क्योंकि यहां उन निमित्त और निमित्ती का योग (संयोग या समवाय) नहीं है-देखिये जिस प्रकार कि:
चर्मरिण द्वीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरं केशेषु चमरी हन्ति सीम्नि पुष्कलको हतः॥