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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
___ यहां सूत्र में पढ़ा गया अन्तराय तो अर्थ तात्पर्य की सामर्थ्य अनुसार उस अलाभपरीषहके योग्य लाभ का विशेष रूपसे अन्तराय कर रहा लाभान्तराय पकड़ा जायगा क्योंकि कारण की विशेषताओंसे ही कार्य में प्राप्त हो रहा, विशेष व्यवस्थित है। लाल तन्तुओं या लाल रंगसे ही लाल कपड़ा बन सकता हैं " कायलिंगं हि कारणं " कारण के ज्ञापक हेतु कार्य होता है, लाभांतरायके द्वारा अलाभ परीषह का कथन किया गमा हे
तेन दर्शनमोहोदये तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणप्रवर्शनं, लाभांतरायोदये चालाभ इति प्रकाशितं भवति ।
तिस कारण उक्त सूत्र द्वारा यह तात्पर्य प्रकाश में ला दिया गया समझा जाता है कि दर्शन मोहनीय कर्मका उदय होने पर तत्त्वार्थोंका अश्रद्धान स्वरूप अदर्शन परीषह उपजती है और लाभान्तरायका उदय हो जाने पर अलाभपरीषह बन बैठता है।
अब जिज्ञासु पूंछता होगा कि मोहनीय कर्म का प्रथम भेद होरहे दर्शन मोहनीयके उदय अनुसार एक अदर्शनपरीषह का होना कहा, अब मोहनीय का दूसरा भेद माने गये, चारित्रमोहनीयका उदय होते सन्ते कितनी परीषहे हैं ? बताओ। ऐसी जिज्ञा साकी संभावना होने पर सूत्रकार महाराज अगिले सूत्र को कह रहे हैं। चारित्रमोहे नांग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥१५॥
वेद, अरति, आदिक चारित्रमोहनीय कर्म का उदय हो जाने पर नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कारपुरस्कार, ये सात परीषहें हो जाना संभवता है।
निषद्यापरीषहस्य मोहोदयनिमित्तत्वं प्रारिणपीडार्थत्वात्, पुंवेदोदयादिनिमित्तस्वान्नग्न्यादीनामिति चारित्रमोहोदनिबन्धना एते । तदेवाह--
. चारित्र मोहनीय कर्म का उदय हो जानेपर प्राणियों को पीड़ा देने का परिणाम उपजता है, अतः प्राणियों की पीड़ा का निराकरण करने के लिये निषद्यापरीषह सही जाती है। यों निषद्या परीषह का निमित्तकारण चारित्रमोहनीय का उदय माना गया है
और नग्नता आदि परीषहों का निमित्त कारण तो वेद का उदय, अरति का उदय आदि हैं। इस प्रकार ये नग्नता आदि परीषहें चारित्रमोह के उदयको कारण मानकर उपजरहीं इस सूत्र में कही गयी हैं। उस ही मूत्रोक्तरहस्यको ग्रन्थकार अग्रिमवात्तिक द्वारा कह रहे हैं।