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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
वेदनीयोदयभावात् क्षुदादिप्रसंग इति चेन्न, घातिकर्मोदयसहायाभावात् तत्सामर्थ्यविरहात् । तत्सद्भावोपचाराद्धयानकल्पनवच्छक्तित एव केवलिन्येकादशपरीषहाः सन्ति न पुनर्व्यक्तितः, केवलाद्वेदनीयाधुक्तादाद्यसंभवादित्युपचारतस्ते तत्र परिज्ञातव्याः । कुतस्ते तत्रोपचयंत इत्याह
___ यहाँ कोई प्रश्न उठा रहा हैं कि जिनेन्द्र भगवान् में वेदनीय कर्म के उदय का सद्भाव हो जाने से क्षुधा, पिपासा, आदि परीषहों द्वारा सताये जाने का प्रसंग आवेगा कर्मों का उदय अपना कार्य करेगा ही। ग्रन्थकार कहते हैं यह तो न कहना। क्योंकि परीषहों द्वारा सताये जाने में घातिकर्मों का उदय सहायक हैं । माया, लोभ, रति, अन्तराय, आदि घातिकर्मों के उदय को सहायता का अभाव हो जाने से उस वेदनोय कर्म की भूख, प्यास, आदि द्वारा सताने की शक्ति का वियोग हो गया है । अतः केवली भगवान् के क्षुधा आदि परीषहों का प्रसंग नहीं आता है।
अथवा एक बात यह भी है कि उस पौद्गलिक वेदनोय द्रव्यकर्म का सद्भाव होने से जिनेन्द्र में ग्यारह परीषहों का केवल उपचार है । अतः सूत्र में "उपचारात्" पद जोड कर अर्थ कर लिया जाय । जैसे कि परिपूर्ण क्षायिक ज्ञानवाले केवलज्ञानी के ध्यान की कल्पना कर ली जाती है। भावार्थ-एक अर्थ में मनोयोग लगा कर प्रवर्त रही अनेक अपूर्वार्थवाहिणी ज्ञानधारा को ध्यान कहते हैं। जिनेन्द्र को जब सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञान है तो उनके ध्यान हो जाना कथमपि नहीं सम्भवता है, अतः ध्यानका उपचारमात्र है। उसी प्रकार शक्ति से ही केवलज्ञानी महोदय में ग्यारह परीषहें हैं किन्तु फिर व्यक्तिरूप से एक भी सहन करने योग्य परीषह नहीं है। सहायरहित केवल वेदनीय कर्म से व्यक्त क्षुधा आदि परीषह हो जाने का असम्भव है। इस कारण उपचार से वे ग्यारह परीषहें उन जिनेन्द्र में युक्तिपूर्वक समझ लेनी चाहिये ।
यदि यहां कोई यों प्रश्न करे कि किस युक्ति से उन परीषहों का उस भगवान् में उपचार किया गया हैं, यों सूत्रार्थ जान लिया जाय ? ऐसी निर्णय की इच्छा प्रवर्तने पर ग्रन्थ कार इन अगली वार्तिकों को कह रहे हैं।
लेश्यैकदेशयोगस्य सद्भावादुपचर्यते । यथा लेश्या जिने तद्वद्वेदनीयस्य तत्वतः ॥२॥