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तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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की हिंसा हो जाना सम्भवता है । अतः एषणासमिति नहीं पलने से संवर नहीं होवेगा । आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो ठोक नहीं है । पात्र का ग्रहण करने से मुनि को परिग्रह रखने का दोष लगता है । बर्तन के धोने, रखने, माजने आदि द्वारा अनेक दोष लगेंगे अतः हाथ में हो परीक्षा कर स्वतन्त्र आहार करने से मुनि को दोष नहीं लगता है । एक बात यह भी है कि कमण्डलु, कटोरदान या अन्य कोई पात्र को ग्रहण कर चर्या कर रहे मुनि के दीनता का प्रसंग आता है । सिंहवृत्ति को धारने वाले मुनि पात्र लेकर दीनवृत्ति कभी नहीं करते हैं। भाजन लेकर भोजन के लिये गृहस्थों के घर जाने में आशानुबन्ध विशेष समझा जायगा । यदि यहां शंकाकार यों कहे कि जैसे प्राप्त होने योग्य बढिया बने हुये अन्न आदि खाद्य पदार्थों को छोडकर मुनि दूसरे घर जाकर जो कुछ नहीं छोके गये योनीरस पदार्थ का भोजन कर लेते हैं, तिसी प्रकार रागद्वेष नहीं बढाने वाले सुलभ, कटोरा, कटोरदान आदि पात्रों का प्रसंग बना रह सकता है । आचार्य कहते हैं कि वह प्रसंग तो ठीक नहीं है क्योंकि उदरगर्त को पूरण करनेवाले उस स्वादरहित अन्न के विना चिरकाल तक तपश्चरण नहीं हो सकता है । तपश्चरण शरीर करके होता है और शरीर
स्थिति आहार विना नहीं सम्भवती है। अतः मुनिमहाराज प्रासुक अन्न को स्वीकार करते हैं । किन्तु इस प्रकार उस तपस्या का पात्र आदिके विना अभाव नहीं है । इस कारण परम ऋषियों करके पात्र, लठिया आदि परिग्रह ग्रहण करनेयोग्य नहीं है । जैसे कि प्राणियों के संसर्ग से रहित हो रहे प्रासुक अन्न का ग्रहण समुचित है वैसा पात्र, बसन, दण्ड आदि का ग्रहण संयम का साधन नहीं है । सावधानीपूर्वक हाथ में लेकर आहार ले रहे मुनि के हाथ से कुछ गिरता नहीं है । अतः जोवों की हिंसा होने की कथमपि संभावना नहीं है । कदाचित् प्रमादवश अन्न गिर पडे तो प्रायश्चित्तविधान द्वारा शुद्धि कर ली जाती है । अब यहाँ कोई तर्क उठाता है कि समितियों को संवरपना या संवर का कारणपना भला किस प्रमाण से सिद्ध है ? बताओ । अपने अपने आगम से कोई भी बात बताई जा सकती है । विना समुचित युक्ति के किसी अत्यन्त अतीन्द्रिय सिद्धान्त को हम मानने के लिये तैयार नहीं । इस प्रकार किसी तार्किक विद्वान् की जिज्ञासा उपजने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक कह रहे हैं ।
सम्यक्प्रवृत्तयः पंचेर्याद्याः समितयः स्मृताः । असंयमभवस्याभिरास्रवस्य निरोधनं ॥ १ ॥ तद्विपक्षत्वतस्तासामिति देशेन संवरः । समितौ वर्तमानानां संयतानां यथायथं ॥ २ ॥