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तत्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
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संवर हो जाना हो इस निरोध का प्रयोजन है । यों निरोध और संवर शब्दों को भाव में घञ् और अच् प्रत्यय कर ही साथ लिया जाय। यहांतक सूत्रोक्त रहस्य का व्याख्यान कर दिया हैं, इस हो निरूपण को ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक द्वारा स्पष्ट कह रहे हैं ।
यथास्रव निरोधः स्यात्संवरोऽपूर्वकर्मणां ।
कारणस्य निरोधे हि बंधार्यस्य नोदयः ॥ १ ॥
अब सूत्रकार नीमे अध्याय के प्रारम्भ में संवरतत्व को कहते हैं । भविष्य काल में आने वाले अपूर्व कर्मों के आस्रव का निरोध हो जाना संवर समझा जायगा, कारण का निरोध हो जाने पर बंधस्वरूप कार्य की उत्पत्ति नियम से नहीं होती है । अर्थात् आस्रव और बंध का समय यद्यपि एक है तथापि आत्रत्र पूर्ववर्ती है और बंध उत्तरक्षणांशवर्ती है । लोक के नीचे भाग से ऊपरले भाग तक एक परमाणु एक समय में चौदह राजू चली जाती हैं परमाणु का पंकप्रभा, रत्नप्रभा ब्रह्मलोक, सर्वार्थसिद्धि इन स्थानों में क्रम से पहुंचना मानना पडेगा यों एक समय के कार्यों में भी क्रम बन जाना सम्भव हो जाता है । अतः बन्ध और आस्रव में कार्यकारणभाव है समान समयवालों में भी दीप और प्रकाश के समान कारणकार्यभाव हो जाने में कोई विरोध नहीं है । अतः कारण हो रहे आस्रव के रुक जाने पर बंधना स्वरूप कार्य भी रुक जाता है ।
आस्रवः कारणं बंधस्य कुतः सिद्ध इति चेत्
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यहाँ कोई जिज्ञासु प्रश्न करता है कि बंध का कारण आस्रव है यह सिद्धान्त किस प्रमाण से सिद्ध है ? बताओ । यों जिज्ञासा प्रवर्तने पर तो ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को उपस्थित करते हैं ।
यास्रवः कारणं बन्धे सिद्धस्तद्भावभावतः । तन्निरोधे विरुध्येत नात्मा संवृतरूपभृत् ॥ २ ॥
बंधकार्य होने में कारण आस्रव है, कार्य कारणभाव तो अन्वय और व्यतिरेक
से सिद्ध हैं, देखिये, उस आस्रव का सद्भाव होने पर बंध की उत्पत्ति का सद्भाव है, आस्रव के नहीं होने पर बंध उपजता नहीं है " यद्भावाभावयोर्यस्योत्पत्यनुत्पत्ती तयोः कार्यकारणभावः । उस आस्रव का निरोध हो जाने पर यह आत्मा संवर प्राप्त हो रहे स्वरूप को धारण कर लेता है । इस सूत्रोक्त सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं पडेगा ।