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अष्टमोध्यायः
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चना चढ जाते मान लिये जाय तो एक सेर भर में ६४०० चना हुये ढाई मन की बोरी में ६४००००- छः लाख चालीस हजार चने भर गये, हजार बोरी वालो नाव में ६४०००००००- चौंसठ करोड चने हुये । हजार बोरी लाद देनेपर नाव पानी में पन्द्रह अंगुल घस जाती है पन्द्रह अंगुलों में असंख्याता संख्यात प्रदेश हैं, असंख्याते उत्सर्पिणी अवसर्पिणकाल के समयों से भी असंख्यात गुणे एक अंगुल में प्रदेश होते हैं । तब तो एक चना निकालने पर भी नाव पानी में असंख्यात प्रदेश ऊपर उठ आवेगी और एक चने को पीस कर पैंनी चीमटी से उठाकर उसका एक करणा भी अधिक लाद देने पर उसी समय असंख्यात प्रदेश नीचे पानी में घुस जावेगी । इसी प्रकार पुण्यबंध और पापबन्ध में अनेक कारणों से विशिष्टतायें उपज जाती हैं । विचक्षण प्रतिभाशाली इस तत्त्व का गम्भीर अध्ययन कर सकते हैं । अनेकान्त सागर में जितना गहरे घुसोगे उतने ही अधिक तत्त्वरत्नों की प्राप्ति कर लोगे ।
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तत्र पापानुबंधिनः पुण्यस्य, पुण्यानुबंधिनश्च पापस्य कार्यं दर्शयति यत्प्रदर्शनसामर्थ्यात् पुण्यानुबंधिनः पुण्यस्य पापानुबंधिनश्च पापस्य फलमवसीयते ।
उस पुण्य, पापों के सहस्रों भंगों से परिपूर्ण हो रहे अनेकान्त रहस्य में अब ग्रन्थकार पाप को अनुबन्ध करने वाले पुज्य का और पुण्य को अनुकूल बांधने वाले पाप का कार्य दिखलाये देते हैं, जिसको कि दृष्टान्त द्वारा बढिया दिखला देने की सामर्थ्य से at for कहे पुण्यानुबन्धी पुण्य का और पाप को अनुकूल बांधनेवाले पाप का फल निर्णीत कर लिया जाता है इसी बात को अग्रिम दो छन्दों में सुनिये ।
प्रथमकमुत संपदां पदं विटगुरवोऽनुभवंति वंद्यपादाः ।
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तदनु च विपदं गरीयसीं दधति परामपि निद्यवृत्तितां ॥ ६ ॥ यदिहतदिदमुत्तरैनसो निजसुकृतस्य फलं वदंति तज्ज्ञाः । तदपरमपि चादिमैनसः सुकृतपरस्य विपर्ययेण वृत्तेः ॥ ७ ॥
व्यभिचारी, धनी, गुरुजन, पण्डा, महन्त, आदि पहिले वो सम्पत्तियों के स्थान हैं । असंख्य मनुष्य ( स्त्री पुरुष ) उनके चरणों की वन्दना करते पुण्यफल हैं किन्तु उसके पीछे बडी भारी विपत्तियों को वे प्राप्त करते हैं। साथ ही सबसे बड़े निन्दा करने योग्य वृत्तिपने को प्राप्त हो जाते हैं, यों पीछे पापफल
का उपभोग करते हैं यह वर्तमान में